एक शान्तिपूर्ण गाँव तिनचुले का सफर / Journey to a Quiet Village Tinchuley
बनारस से कोलकाता लौटकर उसी दिन रात को न्यू जलपाईगुड़ी के लिए ट्रेन पकड़ना था। इतना लम्बा सफर मैंने पहले कभी भी तय नहीं किया था। बनारस से हावड़ा आने वाली पंजाब मेल तकरीबन नौ घंटे देर से चल रही थी। जब तक हम रात को दार्जिलिंग मेल में नहीं बैठे तब तक मन में चिंता के बादल छाये रहे। इस बार हमारी मंजिल थी एक शांतिपूर्ण, प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर ओक और पाइन वृक्षों से लदा गाँव तिनचुले।
पर्यटकों के भीड़ भाड़ से मुक्त यह गुप्त पर्यटन स्थल यहाँ के लोगों की खूबसूरत मेज़बानी के कारण अब लोगों की नजर में आने लगा है। इस सुरम्य स्थल में पहुँचने की घड़ी करीब थी। हम प्रणव और मैरी के घर पहुँचकर उनके साथ इस सफर पर निकलने वाले थे। खुशमिज़ाजी के साथ हम तिनचुले के सफर पर रवाना हुए। शहर की भीड़-भाड़ पार कर जब गाड़ी सेवक रोड पर चलने लगी तो हवा की नमी ने हल्का-सा छुआ। एक ओर पहाड़ की दीवार और दूसरी ओर तिस्ता नदी का नजारा था। हर बार की तरह इस बार तिस्ता चंचल नहीं लगी। कहीं-कहीं तो वह एक शांत झील की तरह नजर आ रही थी। ऊँचे पहाड़ों की गोद में खड़े पाइन, ओक, साल, सहगन के वृक्ष पहाड़ों को मानो हरे चादर से ढके हुए थे। पहाड़ी इलाके की शान्ति मानो मन में रिस रही थी। एक पहाड़ी से दूसरी पहाड़ी तक जाने के लिए सर्पीले रास्ते और दूर से दिखाई देने वाले घर किसी चित्रकार द्वारा बनाए गए तस्वीर जैसे दिख रहे थे। इस तरह सफर तय करते हुए राह में भुट्टे के पौधे, चाय के बाग और फार्म हाउस भी दिखाई देने लगे थे। गाड़ी चालक ने बताया कि हम अपनी मंजिल के काफी करीब हैं। तिनचुले का राई रिसोर्ट हमारी मंजिल था। इस रिसोर्ट में पहुँचने के साथ ही यहाँ की खूबसूरती देखकर मन मानो खिल उठा। पीले और नारंगी रंग के तीन कोनों के छत वाले कॉटेज और घर आँखों को आकर्षित कर रहे ते। चारों ओर लगे रंग-बिरंगे फूलों के वृक्ष मानो यहाँ पल भर समय बिताने का निमंत्रण दे रहे थे। इस रिसोर्ट के खुशमिज़ाज सेवक दिलीप ने कॉटेज के बरामदे पर खड़े होकर दूर पहाड़ी की ओर इशारा करते हुए बताया कि यहाँ से बर्फ से ढकी कंचनजंघा की चोटी दिखाई देती है। और वह दूर की पहाड़ियों की तरफ इशारा करते हुए बताने लगा कि कौन-सा स्थल कलिंगपोंग है, कौन-सा सिक्किम और दार्जिलिंग है। तब मन इन बातों को सुनने से कहीं ज्यादा पहाड़ों की इस शान्त खूबसूरती में रमना चाहता था।
कॉटेज के बगल में एक कच्ची मिट्टी का रास्ता थोड़ा ऊपर चला गया था। उस रास्ते पर चलकर हम उस पहाड़ के सबसे ऊँचे बिन्दु पर पहुँचे। वहाँ से चारों तरफ के पहाड़ दिखाई दे रहे थे। कुछ ऊंचे कुछ नीचे पहाड़, दूर दिखाई देने वाली कुछ धूमिल पर्वत शृंखलाएं और घने मेघ के पीछे ढका कंचनजंघा जिसे देखने की हसरत मन को घेरे हुए थी, इन बातों ने कुल मिलाकर एक खूबसूरत समा बांध दिया था। पहाड़ की इस ऊँचाई पर बैठने के लिए पेड़ों के तनों को काटकर मेज और गोल बैठने की जगह बनी हुई थी। यहाँ बैठकर घंटों बिताया जा सकता था। धीरे-धीरे शाम हो गई और हम कॉटेज के सामने के बरामदे पर आकर बैठ गए। यहाँ से रात का नज़ारा अद्भुत दिख रहा था। पहाड़ की ढलानों पर रोशनियां जलने लगी थी। रोशनी के घनत्व के जरिए पता चल रहा था कि इस पहाड़ के बगल वाले पहाड़ में घना जंगल है। वहाँ रोशनी का नामोनिशान नहीं था। होटल के ड्राइवर ने बताया कि इन्हीं जंगलों से रात को चीता कई बार नीचे उतर आते हैं। उसे डर नहीं लगता। क्योंकि उसका मानना है कि इंसान से ज्यादा ताकतवर और कुछ भी नहीं होता। इंसान जो चाहे कर सकता है। चीता अक्सर बकरियों और कुत्तों को मारकर खाता है।
अगले दिन सुबह साढ़े पाँच बजे उठकर सैर पर जाने का मंजर शुरू हुआ। सुना था ऊपर एक सदियों पुराना बौद्ध विहार है। हम चलकर उस ऊँचाई तक पहुँचे। हमारे साथ-साथ होटल का एलसीशियन कुत्ता मेस्सी भी मानो राह दिखाते हुए यहाँ तक चला आया। रिसोर्ट में आने के बाद से ही वह हमारे आस-पास ही घूम रहा था। पहाड़ी इलाकों में हर घर के लोगों के एक या दो कुत्ते होते हैं। दूसरे इलाके का कुत्ता या अनजान व्यक्ति उनके इलाके में पहुँच जाए तो जोर से भौंकने लगते हैं। हमें डर सिर्फ इस बात का था कि हम अगर किसी घर के बगल से गुजरे तो उस घर के कुत्तों के साथ मेस्सी की झड़प क्या हालात पैदा करेगी? फिलहाल ऐसा कुछ भी नहीं हुआ और हम इस अद्भुत शान्त गाँव के सौंदर्य का आनंद उठाते हुए रिसोर्ट लौट आए। झाउ वृक्ष, भुट्ठे के पौधे, बांस के पेड़, चाय की खेती, फूलों के पौधों ने इस जगह को अद्भुत शोभा से भर दिया था। दूर दिखाई देने वाली सीढ़ीदार खेती और ताश के घरों से दिखने वाले छोटे-छोटे घर इस जगह को जंगली निर्जनता से पैदा होने वाली उदासीनता में डूबने नहीं दे रहे थे। यहाँ निर्जनता में भी जिन्दगी की छुवन थी।
सुबह दस बजे हम तुनचुले के आस-पास के इलाके को देखने के लिए रवाना हुए। सुना था दार्जिलिंग यहाँ से ज्यादा दूर नहीं है। मन में दार्जिलिंग जाने की इच्छा भी तुरंत जग उठी पेशॉक चाय के बाग का खूबसूरत नजारा देखते हुए तकदा बाजार से होकर घूम रेलवे स्टेशन के बगल से हम रोप वे तक पहुँचे। बगल में सेंट जोसफ स्कूल था जहाँ कई फिल्मों की शूटिंग हो चुकी थी। रोप वे बंद होने के कारण हमने बताशिया लूप में ज्यादा वक्त बिताने का निश्चय किया। गाड़ी से जाते हुए दार्जिलिंग गवर्नमेंट कॉलेज की अध्यापिका संध्या दी दिखी। पार्किंग नहीं थी इसलिए ड्राइवर गाड़ी नहीं रोक पाया। संध्या दी को देखकर लगा कि दूर से वह ठीक से समझ नहीं पाई कि कौन उन्हें बुला रहा था। लौटते वक्त मैंने ड्राइवर से दार्जिलिंग गवर्नमेंट कॉलेज के पास गाड़ी रोकने के लिए कहा और कुछ ही पलों में उनके विभागीय कक्ष में पहुँच गई। बरसों बाद उनसे मिल रही थी। उनकी छोटी बहन सोनल मेरी छात्रा रह चुकी थी। मैं फेसबुक पर उनके द्वारा पोस्ट किए गए कंचनजंघा की खूबसूरत तस्वीरें देख चुकी थी। वहाँ रहने के अहसास के बारे में उनसे जानना चाहती थी॥ लेकिन समय बहुत कम था। नीचे गाड़ी में शान्तनु, राशी और प्रणव का परिवार मेरा इंतजार कर रहा था। कॉलेज से निकलकर बताशिया लूप और फिर लामाहाटा पार्क का सफर तय करते हुए मन में अनायास ही एक बात उभर उठी। मेरा मन राह के पेड़ों की धड़कन को महसूस कर रहा था और मानो अपना अंश इनके पास छोड़ता चला जा रहा था। क्योंकि उसे यह महसूस हो रहा था कि इस पेड़ों की आत्मा और उनसे निसृत तरंगें ही इस जगह की खूबसूरती कारण हैं। ये सिर्फ पहाड़ की गोद को ढकने वाले हरे चादर ही नहीं बल्कि अपनी आत्मा से पहाड़ों में लोगों को खींचने के आधार भी हैं। हवा के साथ हिलकर इनके पत्ते आँखों को रमाते हैं, हवा के पत्तों से टकराने के कारण होने वाली ध्वनि कानों को तृप्त करती है, रंग-बिरंगे फूल आँखों को खींचते हैं। पहाड़ी जंगल में एक खास महक घ्राणेन्द्री को स्पर्श करती है। कोई कहता है पेड़ों की महक है और कोई कहता है मेघों की महक है। लेकिन कौन-सी बात सही है इसका पता मुझे आज तक नहीं चल पाया। मुझे सिर्फ इस बात का एहसास हैकि यह महक एक पागल कर देने वाली महक है।
अगले दिन सुबह-सुबह प्रणव, मैरी और प्रमीत को निकल जाना था। हमें एक और दिन यहाँ रुकना था। यह दिन शान्तिपूर्ण भाव से इस जगह की शान्ति, सौंदर्य महक को अपने भीतर रिसाने के लिए ही रखा गया था। सुबह हम फिर लम्बी सैर को निकले। हम पैदल चलते हुए काफी नीचे तक पहुँच गए थे। नीचे एक मिलनसार व्यक्ति के परिवार से मुलाकात हुई। वे भारतीय सेना के कर्मचारी थे। उनकी हाशीमारा में पोस्टिंग थी। कुछ दिनों के लिए घर आए हुए थे। मेस्सी को देखकर उनके पालतू कुत्ते भौंकने लगे थे। उन्होंने उन्हें रोका और हम अलविदा कहकर ऊपर अपने कॉटेज की ओर निकल आए। अभी तक इस सफर के बारे में मैंने जो कुछ भी लिखा है वह कॉटेज लौटकर यहाँ के बरामदे से पहाड़ों के निर्जन सौंदर्य को निरखते हुए ही लिखा।
तिनचुले से लौटने की घड़ियाँ आ गई थीं। प्रणव का परिवार जरूरी काम से एक दिन पहले ही लौट गया था। उसके बाद एक बड़ा पर्यटकों का दल आकर लौट चुका था। मेस्सी सबका साथ निभाता रहा। इन सबके जाने के बाद वह मुझे एक कोने में उदास बैठा दिखाई दिया। बेटी राशी उसे बार-बार बुलाती रही लेकिन वह चुपचाप पड़ा रहा। मुझे ऐसा महसूस हुआ मानो वह उन सब से नाराज है जो आकर लौट जाते हैं और वह साथ निभाने के बावजूद उनके द्वारा अकेला छोड़ दिया जाता है। मेरी बेटी को मेस्सी से खास लगाव हो गया था।
तिनचुले के राई रिसोर्ट से विदा लेने के पल को राई परिवार ने एक यादगार पल बना दिया। उन्होंने मुझे, शान्तनु और राशी को सफेद उत्तरीय पहनाकर अलविदा कहा। कोमल भावों से भीगा वह पल बेहद खूबसूरत था। उनके प्रेम और स्नेह को आंचल में बटोरकर हम न्यू जलपाईगुड़ी स्टेशन की ओर रवाना हुए। इस सफर में गाड़ी के चालक बाबिन से हमें इस इलाके के बारे में काफी कुछ जानने को मिला। लौटते वक्त वह हमें गुम्बा दारा के पेशॉक चाय बाग में ले गया। ऊपर दिखाई देने वाले एक बड़े से पत्थर की ओर इशारा करते हुए उसने कहा कि उसी पत्थर पर एक बार चीता बैठा हुआ पाया गया था। उसने भी कई बार रात को चीता देखा है। लेकिन आज तक चीता ने किसी आदमी को चोट नहीं पहुँचाई। इसलिए उसे भी डर नही लगता। चीता कभी दिखा भी तो वह अपने रास्ते चला गया और बाबिन अपने रास्ते चल दिया।
पेशॉक चाय का बाग मुझे कुछ बेतरतीब दिखा। बाग में चाय के पौधों के साथ छोटे-छोटे सफेद फूलों के पौधे उग आए थे। बाबिन ने बताया कि ये छोटे-छोटे सफेद फूलों वाले पौधे बनमारा फूल के पौधे हैं। टॉनसिल, घाव के लिए ये बेहद लाभकारी हैं। इसके अलावा बाबिन ने तीतापाती के पौधे का पत्ता तोड़ कर मुझे दिया और उसका लाभ भी बताया। राह चलते हुए उसने एक जगह गाड़ी रोकी और घास की तरह इफरात में उगे पौधे के एक पत्ते को तोड़कर सूंघने के लिए कहा। उसमें से नीबू की गंध आ रही थी। यह ‘लेमन ग्रास’ था जो यहाँ शहरों में शॉपिंग मॉल में मिलता है। बाबिन ने बताया कि पेशॉक चाय के बाग एलकेमिस्ट के अधीन थे। शारदा घोटाले के बाद इनका सही ढंग से देखभाल नहीं हो पा रहा । तभी ये बाग बेतरतीब से दिख रहे हैं।
खेती, पशुपालन, पर्यटकों के लिए रहने, खाने पीने और सैर कराने की व्यवस्था और छोटी मोटी दुकानें यहाँ आजीविका कमाने के साधन हैं। टमाटर, मिर्ची, फूल गोभी, बंध गोभी और भुट्टे की खेती यहाँ देखने को मिली। जैसे-जैसे हम मैदानों की ओर उतरते रहे बड़ी इलाइची के पौधे दिखने लगे। बाबिन ने कुछ पौधों की ओर इशारा करते हुए बताया कि इसके पत्ते फूलों का गुलदस्ता बनाने के काम आते हैं। इसे यहां के लोग पानी आंवला का पौधा कहते हैं। इन पौधों की जड़ों में आँवले जैसा फल होता है। प्यासे के लिए इस फल का रस पानी का काम करता है। इसीलिए इसे यहाँ के लोग पानी आँवले का फल कहते हैं।
राई रिसोर्ट से उतरते हुए बाबिन ने नामची के पहाड़ के शिखर पर स्थित शिवजी की मूर्ति दूर से दिखाई। यह एक ऐसी जगह थी जहाँ से नामची, नथुलापास, छोटा मंगवा, बड़ा मंगवा और तिनचुले एक साथ दिखाई दे रहे थे। नामची के शिव के पीछे ही कंचनजंघा निद्रामग्न बुद्ध की तरह दिखाई देता है।
हमारी गाड़ी एक ऐसी जगह पर आकर रुकी जहाँ तिस्ता और रंगीत नदियाँ मिलती हैं। रंगीत का जल पारदर्शी है और तिस्ता का जल हरा। इन दोनों नदियों का यह संगम स्थल बेहद खूबसूरत था। गाड़ी के साथ तिस्ता नदी भी बहती चल रही थी। इस बार मुझे तिस्ता हमेशा की तरह चंचल नहीं दिखी। कारण पूछने पर बाबिन ने बताया कि ‘तिस्ता लो डैम’ अर्थात तिस्ता नदी पर बांध बनाने की वजह से यह नदी शान्त हो गई है। यह नदी सिक्किम से बहकर भारत से होते हुए बांग्लादेश जाती है। इस नदी पर बांध बनाने की वजह से बांग्लादेश के लोगों के लिए दिक्कत का पैदा होना स्वाभाविक है। इस हकीकत को सुनकर महसूस हुआ कि लोग चाहे धरती को जितने टुकड़ों में बांटे लेकिन हवा, नदी, आकाश के दान को बांटना असंभव है। यह प्रकृति का दान है। इंसान को मिलजुल कर ही इसका प्रयोग करना होगा। प्रकृति के ये उपादान मानों हमें मिलजुल कर जीना सिखाते हैं। इस सफर ने प्रकृति की एक ऐसी छवि मन में आंक दी जिसका रंग मेरे ज़ेहन में हमेशा चमकता रहेगा।
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