दो ऐतिहासिक शहरों की कथा / The Story of Two Historical Cities

दो ऐतिहासिक शहरों की कथा / The Story of Two Historical Cities

दो ऐतिहासिक शहरों की कथा / The Story of Two Historical Cities

ऐतिहासिक शहर दिल्ली और आगरा देखने का सौभाग्य पच्चीस साल पहले हुआ था। आज फिर किसी काम से जब दिल्ली जाने की जरूरत पड़ी तो इन दोनों शहरों को फिर से देखकर पुरानी यादें ताजा करने का ख्याल दिल में आया। सुबह साढ़े छह बजे हवाई जहाज से हम दिल्ली के लिए रवाना हुए। यह मेरे जीवन की पहली हवाई यात्रा थी। उड़ान भरते ही धीरे-धीरे जमीन की रेखाएँ धूमिल होने लगीं और बादलों को चीरते हुए हम उनसे ऊपर पहुँच गए। यहाँ से सब कुछ ऐसा दिख रहा था मानो ख्वाबों की दुनिया हो। लगभग डेढ़ घंटे में हम दिल्ली पहुँच गए।
दिल्ली शहर के कुतुब मिनार से इस शहर के पर्यटन स्थलों को देखने का सिलसिला शुरू हुआ। सन् 1193 में दिल्ली सल्तनत के संस्थापक कुतुबुद्दीन ऐबक के द्वारा कुतुबमीनार का निर्माण कार्य शुरू हुआ था। फिर इल्ततमिश, अलाउद्दीन खिलजी ने इसके निर्माण को आगे बढ़ाया। सन् 1369 में बिजली गिरने की वजह से इसका ऊपरी हिस्सा नष्ट हो गया था जिसका फिरोज़ शाह तुगलक ने पुनर्निर्माण करवाया। भीषण भूकम्प के झटकों से जब सन् 1505 में यह मिनार फिर से क्षतिग्रस्त हुआ तब सिकन्दर लोदी ने इसे ठीक करवाया। मेजर रोबर्ट स्मिथ ने इसके पाँचवें मंजिल के ऊपर छठी मंजिल बनवाने की कोशिश भी की थी। पास ही खड़े एक पर्यटक अपने साथी को बता रहे थे कि कुतुबमीनार के प्रांगण में बने मस्जिद के पूर्वी दरवाजे के भीतर की ओर फारसी में लिखा है कि इस मस्जिद का निर्माण दिल्ली के सत्ताइस हिन्दू और जैन मन्दिरों को तुड़वाकर किया गया। मंदिरों के स्तंभों को मस्जिद में लगा दिया गया। उन पर की गई खुदाई आज भी बरकरार है। गुप्त साम्राज्य का ज़ंगमुक्त लोहे का स्तंभ भी यहीं लाकर रखा गया है जिस पर ब्राह्मी लिपि की खुदाई बरकरार है। इतिहास के गर्भ से सत्य का मोती खोज लाना तो दुष्कर है पर यह बात सुनकर मन में अनायास ही यह बात जरूर उभर कर आयी कि इन इमारतों और स्तंभों की आत्मा इनकी कलात्मकता में बसी हुई है। तभी हिन्दू मुस्लिम वैमनस्य के चलते भले ही मन्दिरों के पत्थर मस्जिद में लग गए हैं लेकिन आज ये कलाकृति के नमूनों के तौर पर पारसी और ब्राह्मी दोनों लिपियों को संजोए हुए धार्मिक एकता का प्रतीक बनकर हर धर्म के पर्यटकों को अपनी ओर खींच रहे हैं।
शासकों की नगरी और भारत का दिल यह शहर दिल्ली कई शासकों की कला और संस्कृति की छाप लिए हुए है। इस शहर में खड़े लोदी वंश के नामोनिशां से रूबरू होने हम लोदी बाग पहुँचे। इसे पंद्रहवीं और सोलहवीं शताब्दी के बीच सैय्यद तथा लोदी शासकों ने बनवाया था। इसका पुनर्संस्कार स्टेन और गाररेट एक्बो ने सन् 1968 में करवाया। यहाँ मुहम्मद शाह और सिकन्दर लोदी के मकबरे और बड़ा गुम्बद और शीश गुम्बद उस युग की वस्तुकला की गरिमा को पेश करते हैं। आज इस जगह की हरियाली और सुव्यवस्था सुबह की सैर, व्यायाम और योगाभ्यास के लिए लोगों को अपनी ओर खींचती है।
मृत्यु के बाद दफनाने की जगह को शान्तिपूर्ण और भव्य बनाने की रीत के चलते मुस्लिम शासको ने इस शहर को कई खूबसूरत मकबरे भेंट किए। हुमायूँ का मकबरा उनमें से ही एक है। मिरिक मिर्जा घियास के कलात्मक परामर्श से निर्मित यह मकबरा भारतीय उपमहाद्वीप का पहला ऐसा मकबरा है जो बागों से घिरा है। सन् 1993 में यूनेस्को ने इसे अंतर्राष्ट्रीय विरासत का दर्जा दिया है। मुगल सल्तनत के संस्थापक बाबर ने बागे बाबर की अवधारणा सामने रखकर स्वर्गीय बागीचे में खुद को दफनाने का जो सपना देखा था वह हुमायूँ के समय में बरकरार रहा। हुमायूँ के मकबरे के प्रांगण में बने चार बाग फारसी शैली में बने अनोखे बाग हैं। स्वर्गीय बागीचे के बीच बने इस मकबरे में मुगल राज परिवार के अन्य कई सदस्यों को भी दफनाया गया है। एक ब्रिटिश व्यवसायी विलियम फिन्च ने इस मकबरे के अन्दरूनी वैभव, कीमती कालीन और शामियाना, सफेद कपड़े से ढके कुरान और उसके सामने रखी हुमायूँ की तलवार का जिक्र किया है। इस वर्णन के साथ आज के युग की हकीकत को मिलाना असंभव है। इससे समय या काल की शक्ति का ही प्रमाण मिलता है। सपनों का बाग आज भले ही सरकार की कोशिशों से हरा भरा और सुरक्षित हो लेकिन कब्र के आसपास की जगह का वैभव कीमती आसबाबों के अभाव में फीका पड़ा हुआ है। शेरशाह सूरी के अमीर खान का मकबरा भी हुमायूँ के मकबरे तक पहुँचने की राह में ही खड़ा मिलेगा। जो दरअसल उस प्रांगण का सबसे पुराना मकबरा है। खान ने मुगलों के खिलाफ लड़ाई लड़ी थी लेकिन मृत्यु के बाद मुगल शासक हुमायूँ के मकबरे के पास ही उनका भी मकबरा खड़ा है। वैमनस्य का कहीं भी नामोंनिशां नहीं है। मानो मृत्यु के आहोश में दोनों का शान्तिपूर्ण सहअस्तित्व है।
इस सफर में मेरी पच्चीस साल पुरानी यादें जहाँ ताजा हो रही थीं वहीं इतिहास की गलियों में घूमकर इस देश के शासकों की पुरानी निशानियों को एक बार फिर से नए सिरे से देखने का मौका मिल रहा था। पुरानी यादों को जिंदा करने के इस सफर में मेरा अपने कॉलेज के दिनों की सहेली मौमिता से मिलना कॉलेज एवं विश्वविद्यालय के दिनों की यादों को ताजा कर गया। इस पूरे सफर में एक ओर मेरे पुराने दिनों की यादें ताजा हो रही थीं, वहीं दूसरी ओर समय के सशक्त प्रभाव का अहसास भी हो रहा था। अगले दिन सुबह हमें अत्यंत कम समय में दिल्ली से आगरा जाने वाली विलास प्रधान रेलगाड़ी गतिमान एक्सप्रेस से आगरा के लिए रवाना होना था। यह गाड़ी निजामुद्दीन स्टेशन से छूटती है। इसलिए हमने रात को निजामुद्दीन स्टेशन के रिटायरिंग रूम में रहने का निर्णय लिया था।
अगले दिन के सफर में गतिमान एक्सप्रेस के रेलकर्मियों की मेज़बानी ने राजशाही रंग भर दिया। इनकी मेज़बानी का लहज़ा और मेज़बानों की वेशभूषा आगरा पहुँचने से पहले ही मानो राजाओं की नगरी में प्रवेश करने की सूचना दे रही थी। आगरा का रेलवे रिटायरिंग रूम भी राजशाही लहज़े का ही था। सुबह तकरीबन साढ़े दस बजे हम अकबर के ख्वाबों का किला फतेहपुर सीकरी देखने निकल पड़े थे। कहा जाता है कि यहाँ सूफी संत शेख सलीम चिश्ती के आशीर्वाद से अकबर को जोधाबाई से पुत्र संतान की प्राप्ति हुई थी। शेख सलीम चिश्ती का बसेरा सीकरी में पहाड़ी पर था। पुत्र पाने की खुशी में अकबर ने यह किला बनाया जिसका नाम दिया फतेहपुर। पुत्र संतान की प्राप्ति मानो अकबर के जीवन पर फतेह की सूचक हो। पहाड़ी पर स्थित इस महल तक ले जाने के लिए नीचे बसें खड़ी रहती हैं। पहाड़ी पर पहुँचकर हम फतेहपुर के दिवाने आम से इस किले में दाखिल हुए। बीच में बागीचा और उसके तीनों तरफ आम जनता के बैठने के लिए जगह थी। और महल की तरफ ऊँची जगह पर सम्राट के बैठने की जगह थी। मंत्री सम्राट के आसन के ठीक नीचे खड़े होते थे। और विचार के लिए रखे जाने वाले मुद्दों की घोषणा करते थे। दीवाने आम से होकर महल के भीतरी हिस्से में जाने का रास्ता था।
दीवाने खास जहाँ बैठकर अकबर ने अपने दरबार के नवरत्नों के साथ दीन ए इलाही धर्म की बात को साझा किया था, एक अद्भुत जगह है। दीवाने खास के बीचोबीच एक मोटा खंबा जिसमें उनके तीनों धर्म की रानियों के सम्मान में इसाई, मुस्लिम और हिंदू धर्म के प्रतीक चिह्न बने हैं। इस खंबे के ऊपरी हिस्से में अकबर के बैठने की जगह थी। और उन्हें घेर कर उनके नौ मंत्रियों के बैठने की जगह।
एक तरफ गंभीर विषयों की चर्चा के लिए दीवाने खास था तो ठीक उसके पीछे रानियों की लुका-छिपी का खेल खेलने के लिए खास ढंग से बने कमरे थे। और उसके बाहर अकबर के चौसर का खेल खेलने के लिए विशेष प्रबंध था, जहाँ दासियाँ अलग-अलग वस्त्र पहनकर एक एक चौकोर में खड़े होकर गोटियों की भूमिका अदा करती थीं। और सम्राट के इशारे पर एक चौकोर से दूसरे चौकोर में जाती थीं।
पंचमहल का अकबर के ख्वाबगाह अर्थात रहने की विलासिता पूर्ण जगह से जुड़ा होना, ख्वाबगाह के भीतर गुलाब जल और चंदन की लकड़ियों से बनी सीढ़ियों के होने की बात सुनकर सम्राट के विलासितापूर्ण जीवन की कल्पना आसानी से की जा सकती है। तीनों रानियों के लिए उनके धार्मिक विश्वास का सम्मान करते हुए बनवाए गए महलों में अकबर के धार्मिक सहिष्णुता की छवि स्पष्ट उभरकर सामने आती है। शाकाहारी होने के कारण जोधाबाई की अलग रसोई थी। और मायके से दासियाँ मिलने के कारण जोधाबाई के महल में उनके भी रहने का प्रबंध था। जोधाबाई के महल के बीचोबीच तुलसी का पौधा एक ऊँची जगह पर लगा था। आज वहाँ एक अन्य पौधा लगा है। सोना चांदी और मणियों से कभी थे महल अलग शोभा बिखेरते थे। लेकिन ब्रिटिश राज में इन मणियों को उखाड़कर एवं सोने को गलाकर निकाल लिया गया। सुनहरी और रंगीन चित्रकारी भी वक्त के साथ आज फीकी हो गई है। इसलिए उस युग के ऐश्वर्य को महसूस करने के लिए कल्पना की ऊँची उड़ान भरनी पड़ रही थी। ऐश्वर्य भले ही लुट गया हो लेकिन जलाशय के बीचोबीच बना, वह चबूतरा जहाँ तानसेन और बैजू बावरा के बीच संगीत की ऐतिहासिक प्रतियोगिता हुई थी और जो तानसेन की कला साधना की भी प्रतीक है, उस युग की कलात्मक रुचि का अहसास आज भी दिलाती है।
फतेहपुर में प्रवेश करते ही अकबर और बीरबल के बचपन से पढ़े किस्से याद आने लगे थे। पढ़ी हुई इन कहानियों के किरदारों को इस किले ने जैसे सजीव हो उठने के लिए एक वातावरण दे दिया था। मनोरंजन, संगीत, साधना, धार्मिक सहिष्णुता और सौंदर्यमय वातावरण ने अकबर के शासन के उस काल की एक मनमोहक छवि मन में खींच दी थी। हकीकत का सबसे बड़ा हमला मैंने तब महसूस किया जब यह जाना कि इस नगरी को बनाने में तो पंद्रह साल लगे लेकिन अकबर वहाँ अधिक समय तक नहीं रह पाए, क्योंकि उस जगह पानी की कमी थी। पानी रखने के लिए बना एक गोलाकार बड़ा टैंक, जो आज टूट चुका है, उस पर भी नज़र पड़ी। इस लिहाज से देखें तो यहाँ प्रकृति के सामने राजशाही हारी हुई सी दिखाई देती है।
सीकरी में शेख सलीम चिश्ती का दरगाह फतेहपुर के राज किले के पास ही है। इस दरगाह के दीवारों की नक्काशी देखने लायक है। इस दरगाह में लोग दूर-दूर से चादर चढ़ाने आते हैं। दरगाह आंगन के एक तरफ है और आंगन के तीनों ओर बने कमरों और बरामदे में कभी आइने अकबरी के लेखक अबुल फज़ल बच्चों को तालीम दिया करते थे। दरगाह में आए दर्शनार्थी आज यहाँ घड़ी भर बैठकर शीतल हवा के झोंकों को महसूस करते हैं। दरगाह के ठीक सामने 180 फीट ऊँचा बुलंद दरवाजा मौजूद है। मस्जिद के बनने के पाँच साल बाद और अकबर के गुजरात अभियान की सफलता के प्रतीक रूप में यह दरवाजा बनाया गया। दरवाजे पर मरियम के पुत्र ईसा का यह कथन खुदा हुआ है कि यह दुनिया एक पुल है इसके ऊपर से गुजरो लेकिन यहाँ घर मत बनाओ। प्रार्थना में समय गुजारो क्योंकि बाकी जो कुछ है वह अनदेखा और अनजाना है। आज भी लोग यहाँ शेख सलीम चिश्ती के दरगाह में प्रार्थना में समय गुजारते हैं।
शेख सलीम चिश्ती की दरगाह के पीछे ही कुछ सीढियाँ नीचे की ओर चली गई हैं। गाइड ने बताया कि यहीं अनारकली को जिन्दा चुनवाने का हुक्म हुआ था। इंसान के कई रूप होते हैं। इस हकीकत की पुष्टि इस बात से हो जाती है कि दीन-ए-इलाही की उदारता से भरी घोषणा और अनारकली को जिन्दा चुनवाने का हुक्म दोनों एक ही सम्राट की कोशिशें थीं। अकबर को लाल पत्थर पसंद थे और जहांगीर को सफेद। अपने जीवन में शेख सलीम चिश्ती की खास जगह महसूस करते हुए जहांगीर ने अपने पिता द्वारा लाल पत्थर से बनवाए इस संत के दरगाह को सफेद पत्थर से बनवाया। दरगाह के निर्माण में अपनी पसंद का आरोपण करके मानो जहांगीर ने सूफी संत शेख सलीम चिश्ती के प्रति अपनी श्रद्धा व्यक्त की थी।
फतेहपुर सीकरी के बाद हमारा अगला मुकाम था सिकंदरा। सिकंदरा में अकबर का मकबरा है। इसे बनवाने का कार्य अकबर ने आरंभ किया था लेकिन इसे उसके पुत्र जहांगीर ने पूरा किया। जहाँगीर इस कार्य की देख-रेख के लिए शीश महल में ठहरा करते थे। अकबर के मकबरे में दाखिल होने से पहले सलामी दरवाजे से गुजर कर दाखिल होना पड़ता है। इस दरवाजे की ऊँचाई इतनी कम है कि सिर अपने आप झुक जाता है। गाईड ने बताया कि दर्शनार्थी सिर झुकाकर दाखिल हो। इसलिए इस दरवाजे का निर्माण इस तरह किया गया। श्रद्धा से सिर के झुकने और मजबूरी में सिर के झुकने के बीच भावनात्मक अंतर यहाँ उपेक्षित है। सलामी दरवाजे के बाद शाही दरवाजे पर तीनों धर्मों की रानियों के सम्मान में तीनों धर्म के प्रतीक स्वरूप चिह्न खुदे हुए हैं। शाही दरवाजे पर कभी ऐश्वर्यमय स्वागत की व्यवस्था हुआ करती थी। इस दरवाजे से भीतर प्रवेश करते ही विशाल बागीचे पर नजर पड़ी जहाँ बहुत सारे हिरन चौकड़ी भरते हुए नज़र आए। बीच में मकबरा और चारों तरफ एक ही जैसे बाग और चारों दिशाओं में चार एक से दरवाजे इस मकबरे की खासियत है।
पूर्णिमा की चांदनी रात में ताजमहल के सौंदर्य का वर्णन कई बार सुना था। वह भी एक पूर्णिमा की ही रात थी, जब हम ताजमहल के बहुत करीबी होटल ताज प्लाजा में ठहरे थे। हमारे कमरे की खिड़की से ताजमहल दिखाई दे रहा था। और छत से ताजमहल तक जाने का आलोक सज्जित रास्ता। हमने अगले दिन सुबह ताजमहल देखने का निश्चय किया था। अगले दिन सुबह होते ही हम ताजमहल देखने के लिए निकल पड़े। सफेद संगमरमर से बना ताजमहल जिसने कई कवियों को कविता लिखने के लिए प्रेरित किया, हम उसके सामने खड़े थे। प्रेम की यादगार माना जाने वाला यह स्मारक जो विश्व के सात आश्चर्यों में से एक है उसकी खूबसूरती का बयान करना मुश्किल है। बचपन में सुना था कि शाहजहाँ ने ताजमहल बनाने वाले कारीगरों को कार्य समाप्त होने के बाद तोहफा देने के बजाय उनके हाथ काट दिए थे। यहाँ आकर पता चला कि उनके हाथ नहीं काटे गए बल्कि कारीगरों के साथ शाहजहां ने समझौता कर लिया था कि वे ऐसी ईमारत और न बनाए। उन्हीं कारीगरों के वंशज आज भी संगमरमर पर नक्काशी का काम करते हैं। इतिहास से जुड़ी इन बातों में कितना सत्य है और कितनी कल्पना इसका पता लगाना बेहद कठिन है। एक साहित्यकार तो बस जनता की चित्तवृत्ति का ही बयान कर सकता है। एक ओर सफेद संगमरमर का ख्वाबगाह ताजमहल और दूसरी ओर ताजमहल को देखने आए अतिथियों के सत्कार के लिए नौबत खाना, नमाज़ पढ़ने के लिए मस्जिद और पीछे बहती यमुना नदी आध्यात्मिकता, प्राकृतिक सौंदर्य और कलात्मकता का अभिनव संगम पेश करती है।
ताजमहल के ठीक पीछे यमुना नदी दूसरी ओर महताब बाग है। कहा जाता है कि शाहजहां ने वहां काले पत्थर से एक और ताजमहल बनाने की परिकल्पना की थी। लेकिन कार्य शुरू करते ही औरंगजेब ने उन्हें बंदी बना लिया। उनकी चाहत थी कि काले ताजमहल में उन्हें दफनाया जाए। शाही खजाने की हालत देखते हुए और अन्य कई कारणों के चलते औरंगजेब ने अपने पिता को बंदी बनाकर आगरा के किले में रखा। महताब बाग के बागीचों की परिकल्पना भी ताजमहल के लहजे में ही की गई है। यहाँ से यमुना के उस पार का ताजमहल और भी खूबसूरत दिखता है।
हमारा अगला मुकाम था इतमद्उद्दौला का मकबरा। जहांगीर की बेगम नूरजहाँ के पिता मिर्जागियास बेग के इस मकबरे को ’बेबी ताज’ के नाम से भी जाना जाता है। वाकई संगमरमर पर की गई इस मकबरे की नक्काशी को देखकर ऐसा लगता है कि यह ताजमहल का प्रथम संस्करण है। मकबरे के पीछे बहती यमुना नदी को बेबी ताज के पिछले हिस्से में बने बरामदे पर बैठकर देखना एक अनोखा अनुभव था।
आगरा के लाल किले को दीवारों से घिरा शहर कहा जा सकता है। पानीपत के युद्ध में इब्राहिम लोदी को हराने में आगरा की भौगोलिक स्थिति का एक बहुत बड़ा योगदान रहा है। अकबर ने अपने साम्राज्य को सशक्त बनाने के लिए बाबर के समय के बाद से उपेक्षित आगरा के किले का पुनर्निर्माण आरंभ किया। फिर जहांगीर, शाहजहां ने इस किले में कई जगहों पर लाल पत्थर की जगह सफेद संगमरमर का प्रयोग करके इमारतें बनवाई। इसी किले में औरंगजेब ने शाहजहाँ को मुसम्मन बुर्ज में कैद करके रखा था। यह कैद दरअसल दुखदायी नहीं थी। क्योंकि शाहजहाँ के ऐशो आराम का यहाँ पूरा ध्यान रखा गया था। सिर्फ उन्हें मुसम्मन बुर्ज से बाहर जाने की इजाजत नहीं थी। मुसम्मन बुर्ज से ताजमहल दिखाई देता था। इसे देखते हुए ही शाहजहाँ ने अपनी बाकी उम्र काट दी। मुसम्मन बुर्ज में ही उनकी मृत्यु हुई।
आगरा के किले के दो प्रवेश द्वार प्रसिद्ध हैं। एक ’दिल्ली गेट’ और एक ’लाहौर गेट’ जिसे आज अमर सिंह गेट के नाम से जाना जाता है। भारतीय सेना द्वारा किले के उत्तरी भाग का प्रयोग किये जाने के कारण दिल्ली गेट आम जनता के लिए बंद है। पर्यटक अमर सिंह गेट से ही प्रवेश करते हैं। किले के प्रवेश द्वार पर कभी भव्यता के साथ राजाओं और शाही मेहमानों का स्वागत हुआ करता था। गुलाब जल छिड़कना और वाद्ययंत्रों की ध्वनि से आगमन का क्षण ऐश्वर्य से भर उठता था। सुरक्षा का प्रबंध भी जबरदस्त था। दुश्मन अगर किसी भी तरह किले तक पहुँच भी जाए तो दीवारों से गर्म तेल की नदी सी बहाने की व्यवस्था थी। ताकि दुश्मन आगे न बढ़ पाए। किला जिस जलाशय से घिरा है वहाँ कभी सुरक्षा के लिए मगरमच्छ हुआ करते थे। उसके बाद के हरे भरे इलाके में जंगली जानवर और किले के दीवार पर तैनात सैनिक इस सुरक्षा व्यवस्था के अंग हुआ करते थे।
कांच के टुकड़ों से सुसज्जित शीश महल, आलीशान मयूरी सिंहासन, सफेद पत्थर से बना खास महल, मीना मस्जिद, नगीना मस्जिद सम्राटों के जीवन के विलासिता प्रधान पहलू को पेश करते हैं। इस किले के सारे कीमती असबाब आज गायब हैं। महलों के दीवारों से ब्रिटिशों द्वारा लिए गए मणियों की जगह आज खाली है। उनके कभी होने के निशान आज घाव जैसे दिखते हैं।
मुगल सल्तनत की बराबरी की सल्तनत न होने के कारण इस सल्तनत की बेटियाँ जहाँनारा और रौशनारा कुंवारी ही रह गईं। उनके लिए लालकिले में डोली के आकार के दो संगमरमर से बने महल हैं। इन्हें देखते हुए सहज ही यह बात मन में आई कि ये ऐसी दो आलीशान और जमीन से सटी डोलियाँ हैं जो कभी इस महल से बाहर निकल ही नहीं पाईं। आगरा का किला एक ओर शाही हमाम से लेकर अंगूरी बाग तक गूँजते शाहजहाँ और मुमताज के विलास प्रधान प्रेम के किस्सों का गवाह है तो दूसरी ओर औरंगजेब के द्वारा अपने भाइयों शुजा, दाराशिकोह का कत्ल करने की घटना का भी साक्षी है। आत्मा की आँखों से देखो तो विलासिता, प्रेम, सिसकियाँ, कत्ल, षड़यंत्र, भय, लुटा हुआ ऐश्वर्य मिलकर यहाँ की हवाओं में अजीब-सा शोर भर देते हैं। फतेहपुर के किले की हवाओं में जो खुशनुमा सुगंध थी वह सुगंध आगरा के लाल किले में एक सिरे से गायब थी।
शाम को गतिमान एक्सप्रेस से दिल्ली लौटने की घड़ी आखिर आ ही गई। अब तक आगरा में हम अकबर और उनके बाद की पीढ़ी के सम्राटों के जीवन, की कहानियों को स्मारकों के बहाने से देख समझ रहे थे। अब दिल्ली के पुराने किले में हुमायूँ के जीवन से जुड़ी कहानी को महसूस करने का पल हाज़िर था।
पुराना किला एक ऐसी अनोखी जगह है जहाँ पांडवों से लेकर मुगल साम्राज्य के सम्राट तक ने अपना डेरा डाला। महाभारत में जिस इन्द्रप्रस्थ नगरी का नाम मिलता है वह पुराने किले के भीतर ही स्थित था। जिन जगहों को हम बागपत, तिलपत, सोनीपत, पानीपत के नाम से जानते हैं ये वही जगह थे जिन्हें पांडवों ने कौरवों से मांगा था। यहाँ खुदाई से जो भूरे रंग के पात्र मिले हैं वैसे ही पात्र हस्तिनापुर की खुदाई के दौरान और पुराने किले में खुदाई के दौरान भी मिले। पुरातात्विक खोज ये बताते हैं कि इन्द्रप्रस्थ में लोगों का बसना तकरीबन 1000 ई.पू. से शुरू हुआ था। यही वह जगह है जहाँ कलिंजर और चुनार को जीतने के बाद हुमायूँ ने दीनापनाह शहर बनाया था। फिर शेरशाह ने इसे तोड़कर यहाँ एक दुर्ग बनवाया। शेरशाह दुर्ग को पूरा नहीं कर पाया। इसे जीतने के बाद हुमायूँ ने ही आखिरकार पूरा करवाया। शेरशाह द्वारा बनवाया गया क्वाल-आई-कुहना मस्जिद आज भी यहाँ मौजूद है।
शेरशाह ने मनोरंजन के लिए दुमंजिला इमारत बनाई थी। जिसे शेर मंडल कहा जाता है। इसे हुमायूँ ने बाद में अपना पुस्तकालय बना लिया। अकबरनामा में इस बात का जिक्र मिलता है कि हुमायूँ सन् 1555 में इस पुस्तकालय में शाम को शुक्र ग्रह देखने आए थे। और यहीं से पैर फिसलकर गिर जाने के कुछ ही दिनों बाद उनकी मृत्यु हो गई।
पुराने किले में पुरातात्विक खनन के कार्य के दौरान मौर्य साम्राज्य के समय के भी सामान मिले हैं। इस कार्य के दौरान यह भी पाया गया कि पुराने टूटे फूटे मकानों के मलबे के ऊपर ही नए घर बना लिए गए थे। एक मटके में कपड़े से बँधे हुए बीस सिक्के मिले जो राजपूत और सुल्तान वंश के साम्राज्य के थे। इसके अलावा इल्तुतमिश, बलबन, अलाउद्दीन खिलजी, फिरोज शाह तुगलक के समय के भी सिक्के यहाँ खुदाई के दौरान मिले। इस लिहाज से देखें तो पुराने किले की मिट्टी पांडवों से लेकर मुगल साम्राज्य के शासकों के कार्यकलापों की साक्षी है।
राजशाही से जुड़े स्मारकों को देखने का मंजर समाप्त हो गया था। अब हम शान्ति और अमन की निशानियों को देखने के सफर पर चल पड़े थे। इस सफर में पहला मुकाम था राजघाट। महात्मा गांधी की अहिंसा और शान्तिप्रियता की छाप यहाँ की हवाओं में महसूस की जा सकती है। दूर तक फैला हरा सुनियोजित मैदान और सुसज्जित समाधि स्थल मानो मन को घड़ी भर बैठकर शान्त कर लेने का न्यौता दे रहा था। समाधि स्थल तक पहुँचने से पहले दीवारों पर लिखे गांधी जी के वचन जैसे मन को शान्ति जल से भर रहे थे। राजघाट से निकलकर हम गाँधी स्मृति भवन की ओर निकल पड़े। गाँधी जी के जीवन के आदर्श, उनका रहन सहन, उनके द्वारा किए गए तमाम कार्यों और उनके द्वारा इस्तेमाल की गई वस्तुओं की प्रदर्शनी ने मन में स्वाधीनता आंदोलन के दौरान भारत के हकीकत का ज्वलंत चित्र खींच दिया। यहाँ से राष्ट्रपति भवन, संसद भवन, तीन मूर्ति, इंडिया गेट को गाड़ी से ही देखते हुए हम अक्षरधाम मंदिर पहुँचे।
अक्षरधाम के स्वामी नारायण मंदिर में आगंतुकों को दार्शनिक स्तर पर मन की बारीकियों को समझाकर जीवन दर्शन देने की कोशिश ने मुझे आकर्षित किया। इस मन्दिर में प्रवेश करने के लिए ’दस द्वार’ से होकर गुजरना पड़ता है। ये दस द्वार दसों दिशाओं से शुभकामनाओं के आगमन का प्रतीक है। जो मन और हृदय को खोलकर आत्मा में विश्व प्रेम, भाईचारा और शान्ति का भाव भरने की प्रेरणा देता है। दस द्वार के बाद भक्ति द्वार से गुजरते हुए द्वार पर नक्काशी से बनाई गई भक्त और भगवान की दो सौ आठ जोड़ी आकृतियाँ दिखती हैं। यह द्वार आगन्तुकों को आशीर्वाद देने का सूचक है। इस द्वार को पार करके हम भव्य हॉल घर में पहुँचे। इसे दर्शनार्थी केन्द्र कहा जा है। यहाँ स्वामी नारायण जी के संदेश और उनकी मूर्तियाँ हैं।
भारतीय संस्कृति में मोर सौंदर्य और आत्मनियंत्रण का प्रतीक है। भारत के राष्ट्रीय पक्षी मोर से जुड़ी कई दिव्य कहानियाँ हिन्दू शास्त्र में मिलती हैं। इसी सत्य के आधार पर अक्षरधाम के मयूर द्वार बने हैं। दो मयूर द्वारों में 869 मोर जड़ाऊ पत्थर के साथ खुदे हुए हैं। और दो मयूर द्वारों के बीच स्वामीनारायण जी का चरणारविंद है। जो पृथ्वी पर उनके अवतरण का सूचक है। इस चरणार्विंद पर चार शंखों का जल गिर रहा है। चरणार्विंद के बाईं तरफ भारत उपवन है। जहाँ हिंदू शास्त्र में प्राप्त कहानियों से जुड़ी मूर्तियाँ बनी हैं। साथ ही मूर्तियों में निहितार्थ को समझाने के लिए कैसेट के जरिए कहानी भी सुनाई जा रही है। भारत उपवन के अलावा एक और उपवन है योगी हृदय कमल, जहाँ कमल के आकार के उपवन में बच्चों के लिए झूले लगे हुए हैं।
अक्षरधाम की तीन प्रदर्शनियों ने मन को गहराई से छू लिया। दृश्य श्रव्य माध्यम, बोलती मूर्तियों को देखते हुए एक निर्देशानुसार उत्तरोत्तर एक के बाद एक कक्ष से गुज़रना एक अनोखा अनुभव था। इस प्रदर्शनी को सहजानन्द प्रदर्शनी कहते हैं। इसका लक्ष्य है न्यायपूर्ण, अहिंसात्मक, शाकाहारी, नैतिकता और सामंजस्यपूर्ण जीवन जीने की प्रेरणा देना। अगली प्रदर्शनी में एक विशाल चित्रपट पर नीलकंठ यात्रा फिल्म प्रस्तुत की जाती है। चित्रपट लगभग छह मंजिला मकान जितना था। बाल योगी नीलकंठ के जीवन पर आधारित इस फिल्म को देखते हुए नदी, पहाड़, झरनों और प्राकृतिक दृश्यों से हम खुद को घिरा हुआ महसूस कर रहे थे। चित्र पट की अनोखी बनावट ने मानो दर्शकों को भी नीलकंठ की यात्रा में शामिल कर लिया था।
प्रदर्शनी का तीसरा अंग था संस्कृति विहार। जो दरअसल नौका विहार है। लोगों के दल को लेकर एक मोर के आकार की नाव एक ऐसी जगह से गुजरती है जिसके दोनों ओर मूर्तियाँ हैं और इनके जरिए दस हजार वर्ष के भारत के इतिहास की छवि दर्शकों के जेहन में बैठ जाती है। वैदिक जीवन से लेकर तक्षशिला और प्राचीन युग के शिक्षण संस्थानों के अतुलनीय जीवन दर्शन, आविष्कारों या खोजों को यह बारह मिनट का नौका विहार सहजता से महसूस करवा देता है।
सूर्यास्त के बाद अक्षरधाम में आयोजित सहजानन्द जल प्रदर्शनी में प्रकाश और ध्वनि के अद्भुत प्रयोग के माध्यम से अहंकार की जगह पर सहजता लाकर जीवन में आनंद प्राप्त करने का संदेश दिया गया है। इन प्रदर्शनियों के अलावा स्वामी नारायण का मन्दिर, मन्दिर का गर्भगृह, भव्य मंडप, नीतिपरक कहानियों को आधार बनाकर मंडोवर में की गई नक्काशी दर्शकों को कई घंटों तक यहाँ बाँध कर रख सकती है। मंदिर नारायण सरोवर से घिरा है। इस सरोवर में 108 ताम्बे के गौमुखों से लगातार जल गिर रहा है। ये गौमुख 108 देवताओं के नामों के सूचक हैं। मन को घंटों बाँध कर रखने की शक्ति से सम्पन्न इस जगह में कैमरा, मोबाइल कुछ भी ले जाने की अनुमति नहीं है। खाने की भव्य दुकानें भी मन्दिर के भीतर ही हैं। एक बात यहाँ गौरतलब है कि आज के युग में लोग जहाँ मोबाइल के बिना खुद को अपाहिज सा महसूस करते हैं वहीं यह मंदिर घंटों तक लोगों को मोबाइल की दुनिया से बाहर निकलकर वक्त बिताने का निमंत्रण देता है। शांति और सौंदर्य का स्पर्श पाने की चाहत के चलते असंख्य लोग इस निमंत्रण को स्वीकार करते हुए मोबाइल की दुनिया से बाहर निकलकर यहाँ घंटों वक्त भी बिताते हैं। हमने तीन बजे मन्दिर प्रांगण में प्रवेश किया था और कैसे रात के आठ बज गए पता ही नहीं चला। अक्षरधाम से निकलकर हम अतिथि गेस्ट हाउस की ओर रवाना हुए और वहाँ पहुँचकर लगभग चार दिनों के बाद घर जैसे भोजन का सेवन करने का मौका मिला।
अगले दिन दोपहर को हमें दिल्ली हवाई अड्डा पहुँचना था। सुबह होते ही हम सैर पर निकल पड़े। और टहलते हुए दिल्ली के चित्तरंजन पार्क के मंदिर में पहुँचे। मंदिर का वातावरण बेहद शांतिपूर्ण था। यहाँ से हम दिल्ली का कमल मन्दिर अर्थात् लोटस टेम्पल देखने निकल पड़े। यह बहाई उपासना मंदिर है। बहाउल्लाह के संपूर्ण मानव जाति को अपनाने और पृथ्वी को एक देश मानने का विश्वास इस मंदिर की नींव है। कमल मंदिर पानी के नौ बड़े तालाबों से घिरा है। नीले रंग का प्रतीत होने वाला जल आँखों को अजीब सी ठंडक देता है। साथ ही यह मंदिर के अन्दर के तापमान को भी कम रखता है। भारतीय उपमहाद्वीप में विश्व के विभिन्न भागों में बने सात बहाई मन्दिरों में से यह एक है। कमल का फूल भारतीय संस्कृति में चैतन्य, ज्ञान, सौन्दर्य का प्रतीक रहा है। कमल के फूल के आकार का यह श्वेत धवल मंदिर नौ तालाबों के ऊपर बना है। मानो पानी में खिला श्वेत कमल हो। विशाल उपासना गृह में एक साथ तेरह सौ लोग बैठकर उपासना कर सकते हैं। इस मंदिर में कमल की कुल सत्ताइस पंखुड़ियाँ हैं। वैज्ञानिक दृष्टि से भी इस मंदिर का उपासना गृह ध्यान के उपयुक्त है। क्योंकि कहा जाता है कि अगर इमारतों की छत कोणाकार हो तो विद्युत चुम्बकीय किरणों का अनोखा प्रवाह उस छत के नीचे बैठने वालों को शान्ति की अनोखी अनुभूति दे सकता है। इसी वैज्ञानिक सत्य के चलते ही प्राचीन काल से मन्दिर की छत कोणाकार बनाने की रीत चल पड़ी। गिरजाघरों और मस्जिदों के छतों के भी सपाट न होने के पीछे संभवत: यही वैज्ञानिक सत्य हो सकता है। जो भी हो कुल मिलाकर दूर तक फैले हरे मैदान के बीच नौ तालाबों से घिरा कमल के आकार का मंदिर हमें शान्ति से भर गया।
कलकत्ता वापस लौटने का पल हाजिर था। हम अपने साथ आगरा का मशहूर पेठा और स्मृति चिह्न के तौर पर फतेहपुर सीकरी से खरीदी गई संगमरमर पर नक्काशी के दो नमूने एक ताजमहल और दूसरा मोमबत्ती रखने का आधार लेकर जा रहे थे। हवाई जहाज हमें कलकत्ता ले जा रही थी। लेकिन मन अब भी इतिहास की गलियों और शान्ति और अमन के प्रतीक मंदिरों की गलियों में घूम रहा था।

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