मई-जून की छुट्टियों में मन को तरोताजा करने के लिए प्रकृति में रमकर समय बिताने की आदत अब गहरी चाहत बन गई थी। इस साल मई-जून की कार्यसूची इस चाहत को पूरा करने की इजाजत नहीं दे रही थी। लेकिन गर्मियों की छुट्टी में प्रकृति के साये में वक्त बिताकर मन की बैटरी को चार्ज करना भी जरूरी थ। जहाँ चाह वहाँ राह के न्याय से अप्रैल के महीने में गुड फ्राइडे, बांगला नया साल का प्रथम दिन और रविवार का एक के बाद एक पड़ना हमें एक और प्राकृतिक अनुभव हासिल करने का मौका दे गया। बंगाल के सौंदर्य को अलग-अलग प्राकृतिक स्थलों में वक्त बिताकर महसूस करने का सिलसिला तो हमने बहुत पहले ही शुरू कर दिया था। इस बार उसी कड़ी में एक और नाम हल्दिया का जुड़ गया। इस सफर पर जाने के लिए विशेष तैयारी की जरूरत नहीं थी। घर से ही अपनी गाड़ी में जरूरत का सामान लेकर हमने हल्दिया के लिए लांग ड्राइव आरंभ की। जाना पहचाना नेशनल हाइवे सोलह का मसृण रास्ता पकड़ते ही मन शहरी भीड़ भाड़ से मुक्ति के पल महसूस करने लगा था। गंगा नदी और कोलाघाट में रूपनारायण नदी को पार करके गाड़ी हल्दिया की ओर बढ़ रही थी। कोलाघाट पार करते ही रास्ते के दोनों ओर लगे वृक्षों का घनत्व बढ़ गया था। जिसके चलते वन्यता का रंग हवा में घुल रहा था। उस पर आने और जाने के रास्तों के बीच के विभाजक स्थल में बेतरतीब उगे झाड़ झंखाड़, कहीं फूलों के वृक्ष तो कहीं बड़े पेड़ इस वन्यता को और बढ़ा रहे थे। इस तरह आगे बढ़ते हुए दूर से जहाज के लंगर के आकार का हल्दिया का प्रवेश द्वार दिखा। हुगली और हल्दी नदी के संगम स्थल पर पश्चिम बंगाल के पूर्व मेदिनीपुर जिले में बसे इस शहर में जहाँ हरियाली दिखी वहीं बड़े जहाज, नाव, माल उठाने वाले क्रेन भी दिखे। यहाँ पेट्रो केमिकेल फैक्ट्री में कार्यरत लोगों के रहने के लिए कई टाउनशिप सुनियोजित ढंग से बने हुए थे। रास्तों के दोनों ओर लगे पाम के वृक्ष रास्ते की शोभा बढ़ा रहे थे। जमीन से कुछ ऊँचाई तक सफेद रंग से रंगे पेड़ के तने खूबसूरती को बढ़ा रहे थे। देखते ही देखते हमारी गाड़ी हल्दिया भवन प्रांगण में प्रवेश कर गई।
सुना था हल्दिया के सौंदर्य को अगर गहराई से महसूस करना हो तो हल्दिया भवन में रहना जरूरी है। इस बात का अहसास यहाँ पहुँचते ही हो गया। रंग बिरंगे फूलों से सजे लॉन, भवन से नदी को जोड़ने वाले एक छोटे से कच्चे रास्ते और उस रास्ते के खत्म होते ही नदी के विस्तृत वक्षस्थल को भवन के बरामदे से निरखना एक अनोखा अनुभव था। बरामदे से ही नदी के समांतर बने रास्ते के किनारे लगे पाम के वृक्ष और दो वृक्षों की दूरी पर बैठने के लिए बने बेंच दिख रहे थे। बड़े-बड़े जहाजों को यहीं बैठकर गुजरते हुए देखने का मंजर भी रोमांचक था।
कोलकाता पोर्ट के कार्यभार को हल्का करने के लिए बना हल्दिया डॉक कॉमप्लेक्स हल्दिया शहर के विकसित होने का मूल कारण है। अंग्रेजों ने अपने औपनिवेशिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए ही कोलकाता पोर्ट को विकसित किया था। लेकिन आजादी के बाद इस जगह का प्रयोग देश के विकास के उद्देश्य से होने लगा। हल्दिया केवल पश्चिम बंगाल ही नहीं बल्कि पूरे पूर्व भारत में तेजी से उभरने वाले औद्योगिक क्षेत्रों में से एक है। पेट्रो केमिकल उद्योगों से भरे इस जगह को हुगली और हल्दी नदी के संगम और देवदारू, पाम और अन्य कई बड़े-बड़े वृक्षों के साये ने अनोखी शोभा से भर दिया है। उस पर हल्दिया भवन के आस-पास के इलाके की निर्जनता ने यहाँ के वातावरण को संगीत से भर दिया है।
हालांकि गर्मी ने दरवाजे पर दस्तक दे दी थी फिर भी बंगाल की खाड़ी के करीब का यह इलाका जल की नमी से भरी हवा के कारण ठंडक को संजोए हुए था। ऐसे वातावरण में घने पेड़ों के बीच से कोयल का कूकना एक मनोरम अनुभव था। ऐसे मौसम में हम सूर्यास्त का खास अनुभव प्राप्त करने के लिए बालूघाट की ओर रवाना हुए। नदी के समांतर दूर तक चले गए रास्ते पर ही वह स्थल था जहाँ से सूर्यास्त का सौंदर्य बड़ी शिद्दत से महसूस करना संभव था। उस जगह तक पहुँचने से पहले ही हल्दी नदी के ही किनारे बसे बड़े-बड़े मत्स्य पालन के जलाशय थे। मिट्टी की एक दीवार हल्दी नदी और इस जलाशय के बीच विभाजक का काम कर रही थी। इस जलाशय में कुछ चरखे चलते हुए दिखाई दिए। दरअसल छोटी मछलियों में पानी से ऑक्सीजन खींचने की क्षमता कम होती है। पानी में विद्युत के जरिए जब चरखे चलते हैं तो उसमें कंपन पैदा होता है। यह कंपन छोटी मछलियों के बढ़ने के लिए आवश्यक स्थिति प्रदान करता है। रास्ते के दोनों ओर बने जलाशय और जलाशय के उस पार हल्दी नदी का नजारा आँखों को ठंडक दे रहा था। लहरों की कल कल आवाज के बीच ठंडी हवा का बहना और रास्ते के किनारे बने बेंच पर बैठकर नदी की पृष्ठभूमि में क्रमश: लाल होते हुए डूबते सूरज को देखना एक अविस्मरणीय पल था।
सूर्यास्त के बाद हम हल्दिया मेरीन ड्राइव पहुँचे। हल्दी नदी के किनारे बसा यह स्थल यहाँ रहने वालों के लिए भी एक विशेष आकर्षण केन्द्र है। रास्ते के किनारे एक पंक्ति में खड़े पाम के वृक्ष, सजीली रोशनी, जगह-जगह पर बनी खूबसूरत मूर्तियाँ और बैठने की खूबसूरत व्यवस्था ने इस जगह में एक अलग सौंदर्य भर दिया है। मेरीन ड्राइव के अंत में बना पार्क भी इस इलाके का एक विशेष आकर्षण केन्द्र है। सुबह शाम यहाँ लोग नदी की ताजी हवा खाने आते हैं। प्रकृति की यह अद्भुत देन यहाँ के लोगों को मिला एक उपहार ही है। यहाँ से उस पार नन्दीग्राम का तट दिखाई दे रहा था। कुछ साल पहले नन्दीग्राम का नाम सुनते ही जो भयानक छवि आँखों के सामने उभर आती थी आज के अनुभव ने उस छवि की जगह प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर एक नई छवि बना दी थी। इस जगह को सूरज की रोशनी में एक बार फिर देखने की चाह को मन में भरकर हम हल्दिया भवन रवाना हुए।
हल्दिया भवन पहुँचते ही संगम स्थल से आ रही तीव्र रोशनी ने हमारा ध्यान खींचा। यह रोशनी नदी के किनारे खड़े हुए विशालकाय जहाज से आ रही थी। पूछने पर पता चला कि ऐसे जहाज हल्दिया स्थित तीसरी तेल जेट्टी पर बंबई से तेल लेकर आते हैं और पाइप लाइन के जरिए तेल को गंतव्य स्थल तक पहुँचाकर वापस लौट जाते हैं। जहाज की उस रोशनी को देखकर अनायास ही विद्यालय में पढ़े अध्याय ’टाईटेनिक’ की याद आ गई। हल्दिया भवन के ठीक सामने नदी के किनारे बने बेंच पर बैठकर उस जहाज की रोशनी को लहरों की आवाज सुनते हुए निरखना बेहद सुखद था। उस पर जल से नम हुई गर्मियों के मौसम की हवा उस क्षण को और भी मनोरम बना रही थी।
हल्दिया की खूबसूरती को और भी गहराई से महसूस करना हो तो सुबह पांच बजे तक सुबह की सैर पर निकल पड़ना जरूरी है। इसी निश्चय के साथ हम अगले दिन सुबह-सुबह सैर पर निकल गए। हल्दिया टाउनशिप के चौड़े मसृण रास्ते और सजीला हरा वातावरण मानो सुबह की हवा के साथ मन में रिस रहा था। चलते हुए हम फिर मेरिन ड्राइव के सौंदर्य को सूरज की रोशनी में निरखने के लिए वहाँ पहुँच गए। छटे हुए घास के लॉन के बीच नदी के किनारे कतार से लगे पाम वृक्ष और बैठने के लिए पक्के बेंच उस पर नदी को छूती हुई आती तेज हवा ने हमे खामोश होकर इस वक्त की तस्वीर और अहसास को मन में संजोने के लिए मजबूर कर दिया। कुछ आगे चलकर नगरपालिका द्वारा नदी के किनारे टाइल्स से बनाए गए फुटपाथ और जगह-जगह बनी मूर्तियाँ थीं। लेकिन उस कृत्रिम सौंदर्य से कहीं ज्यादा आकर्षक था छटे घास का नैसर्गिक लॉन। आगे चलकर जेट्टी थी जहाँ मछुवारे रोज नयाचर या मीन द्वीप से मछली लेकर बेचने आते हैं। साथ ही नन्दीग्राम आने जाने वाले भी इसी जेट्टी का प्रयोग करते हैं। पर्यटकों को मीन द्वीप तक जाना हो तो मछुवारों के नाव में ही जाना पड़ता है। बांगला में नदी द्वारा बहा कर लाई गई मिट्टी के जमने से बनने वाले भूखंड को ’चर’ कहते हैं। यह द्वीप काफी पुराना नहीं है। इसलिए इसे ’नयाचर’ कहते हैं। यह द्वीप आज ’चींगड़ी’ नामक मछली के सर्वाधिक उत्पादन के लिए विश्व में प्रसिद्ध है। इसी वजह से संभवत: इसे ’मीन द्वीप’ भी कहते हैं।
हमारी किस्मत हमें पहले दिन से ही बार-बार हल्दिया डॉक कॉमप्लेक्स के सेवानिवृत्त सज्जन श्रीपतिचरण दास से मिला रही थी। पहले दिन ही शाम को मेरीन ड्राइव की सैर करते हुए हमने उनसे नयाचर के बारे में पूछा था। अगले दिन सुबह उन्हें फिर मरीन ड्राइव में सैर करते हुए पाया। उनसे रामकृष्ण मिशन द्वारा परिचालित मुक्तिधाम मन्दिर का रास्ता पूछते ही उनके व्यक्तित्व का समाज सेवी पहलू उभर कर सामने आया। रामकृष्ण मिशन से जुड़कर वे सत्रह साल सेवा निवृत्त जीवन व्यतीत करने के साथ-साथ समाज सेवा का कार्य भी कर रहे थे। ताजी हवा और सेवा कार्य में मन को रमाए रखने के कारण ही शायद उन्हें देखकर उनकी उम्र का अंदाजा लगाना मुश्किल था। मुक्तिधाम मन्दिर के बारे में पूछते ही उन्होंने न सिर्फ रास्ता बताया बल्कि उनकी पत्नी की अंतरंग सहेली काजल दी से भी संपर्क करके उन्हें बताया कि हमारी आज उस मन्दिर में जाने की योजना है। काजली दी मुक्तिधाम मन्दिर के बगल में स्थित शारदा मिशन की सन्यासिनी हैं। सन्यास के बाद उन्हें प्रेमानन्दमयी नाम दिया गया। इस अद्भुत सन्यासिनी से मिलने का सौभाग्य भी हमें श्रीपति जी से मिलने के कारण ही प्राप्त हो पाया।
सुबह का नाश्ता करके ही हम नहा धोकर मुक्तिधाम मन्दिर के लिए रवाना हुए। इस बीच प्रेमानन्दमयी माँ से भी फोन पर बात हो गई थी। मुक्तिधाम मन्दिर हल्दिया भवन से लगभग 21 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। वहाँ पहुँचते ही दक्षिण भारत के लहजे पर बने नक्काशीदार सफेद गेट ने हमारा ध्यान खींचा। गेट का फाटक किसी राजमहल के फाटक जैसा था। फाटक से प्रवेश करते ही रास्ते के बीचोबीच और दोनों तरफ देवदारू के सजीले छटे हुए पेड़ नजर आए। उस फाटक से प्रवेश करने का अनुभव किसी राजमहल में प्रवेश करने के अनुभव से कम नहीं था। कुछ दूरी तक चलकर बाईं ओर प्रार्थना गृह स्थित है, जो थोड़ी ऊँचाई पर है। प्रार्थना गृह में राधाकृष्ण और काली माँ और हनुमान जी की मूर्तियाँ हैं। इस गृह का परिवेश ध्यान के लिए विशेष रूप से उपयुक्त है। इस प्रार्थना गृह के बरामदे से एक गुफा नजर आती है जिसके ऊपर शिवजी का मन्दिर है। मुक्तिधाम मन्दिर के विशाल प्रांगण की सैर करते हुए हम ठीक उसके विपरीत स्थित शारदा मिशन सेवाश्रम पहुँचे। वहाँ हमें प्रेमानन्दमयी माँ हमारा इन्तजार करती हुई मिली।
प्रेमानन्दमयी माँ से शारदा मिशन सेवाश्रम का इतिहास सुनकर उनके प्रति और इस आश्रम के प्रतिष्ठाता भक्ति चैतन्य जी के प्रति हमारा श्रद्धा भाव उमड़ पड़ा। लगभग उन्नीस सौ साठ के आसपास भक्ति चैतन्य ने सेवा भाव से प्रेरित होकर ही गाँव के बच्चों खास कर लड़कियों को शिक्षा देने के उद्देश्य से बड़ी लगन से एक विद्यालय को चालू करवाया। लेकिन काफी क्लेश का सामना करके वे उस विद्यालय से खुद को अलग करने के लिए मजबूर हो गए। लड़कियों की शिक्षा का प्रबंध करने की धुन उन पर सवार थी। इसी धुन ने उन्हें शारदामनी बालिका विद्यालय की स्थापना करने के लिए प्रेरित किया। प्रेमानन्दमयी माँ इसी विद्यालय की छात्रा थी और सेवाभाव उनमें इस तरह कूट-कूट कर भर गया था कि महिषादल में स्थित अपना घर छोड़कर उन्होंने सन्यासिनी जीवन अपना लिया। आज शारदा मिशन सेवाश्रम लगभग सत्रह नेत्रहीन बालिकाओं को कारीगरी की शिक्षा प्रदान करने के साथ-साथ सौ से भी अधिक नेत्रहीन विद्यार्थियों को बालिका विद्यालय में शिक्षा भी प्रदान कर रहा है। कुल चार सन्यासिनें और चार ब्रह्मचारिणियाँ मिलकर इस आश्रम को संभालती हैं। इतना ही नहीं आश्रम के बालिकाओं की नेत्र संबंधी समस्याओं को देखते हुए इसी आश्रम के प्रयास से एक नेत्र अस्पताल भी यहाँ खुल गया है। सेवाकार्य के प्रथम प्रयास में क्लेश पाकर भक्ति चैतन्य जी निराश होने के बजाय दुगनी उर्जा से सेवा कार्य में लग गये थे। उस प्रयास का फल उनके द्वारा प्रतिष्ठित विवेकानन्द मिशन आश्रम, शारदा मिशन सेवाश्रम, नेत्र अस्पताल, विवेकानन्द मिशन मन्दिर, विवेकानन्द मिशन महाविद्यालय, शिक्षायतन भव्य रूप में हमारे सामने खड़ा था। प्रेमानन्दमयी माँ के उष्णता पूर्ण स्वागत और सहजता ने हमारा मन मोह लिया। हमने नेत्रहीन बालिकाओं द्वारा बनाई जाने वाली वस्तुओं और उनके कार्य स्थल को भी देखा। उन्हीं से यह जानकारी मिली कि शेक्सपीयर सरणी स्थित ऋषि अरविन्द भवन यहाँ की बालिकाओं द्वारा बनायी गए वस्तुएँ खरीद लेता है। इसी के चलते इस गाँव में भी इस तरह का कार्य चला पाना संभव हो पा रहा है। इतना ही नहीं समय-समय पर कई धनी व्यक्तियों ने दान के जरिए इस आश्रम के विकसित होने में गहरा सहयोग दिया है। मानव संसाधनों की कमी और आर्थिक सहयोग की अनिश्चितता के बीच प्रेमानन्दमयी माँ इस अखंड विश्वास के साथ हमेशा चिन्तामुक्त रहती हैं कि जब इस जगह को बचाए रखने की जिम्मेदारी ईश्वर की है तब हमारे चिंतित होने का कोई मतलब ही नहीं बनता।
पहले दिन बालूघाट से लौटते हुए हम एक जाऊ वृक्ष का वन देखकर रुक गए थे। उसी वन से होकर एक कच्चा रास्ता सीधे नदी तक पहुँच गया था। निर्जनता, वन्यता, खामोशी, नदी का खूबसूरत नजारा एक साथ उस स्थान में खूबसूरत रंग घोल रहे थे। उस पर एक घने पेड़ के नीचे किसी ने शिवजी की एक छोटी-सी मूर्ति रख दी थी। नदी के किनारे शान्ति में डूबे वातावरण के बीच हवा के सरसराते हुए पेड़ों के बीच से गुजरने और उस पर नदी किनारे के खेतों के बीच एक घने पेड़ के नीचे शिवजी की मूर्ति प्राचीन युग का आभास दिला रही थी। हमारी इच्छा थी कि अगले दिन भी यहीं बैठकर सूर्यास्त देखें। लेकिन मेरीन ड्राइव के विद्यासागर पार्क में समय बिताने के कारण यहाँ फिर से आना नहीं हो पाया। इसी के साथ हल्दिया पत्तन के जहाजों को करीब से देख पाने की इच्छा भी समय की कमी के कारण स्थगित रह गयी। इन्हीं अधूरी इच्छाओं के कारण हम यहाँ से रवाना होने से पहले ही यह तय कर बैठे कि शीघ्र ही हल्दिया में हम अपने माता-पिता के साथ हाजिर होंगे।
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