रफ्तार के साथ भागती जिन्दगी में हर व्यक्ति व्यस्त है। ज्यादा से ज्यादा ऐशो आराम के साधन जुटा लेने को ही वह सुख समृद्धि का आधार मानकर उन्हें बटोरने के लिए लगातार दौड़ रहा है। अपने परिवार को सुखी और सम्पन्न बनाने की कोशिश में वह खुद को काम में डुबो देता है। लेकिन यहाँ उसकी व्यस्तता परिवार के साथ उसके रिश्तों के रेशों को कमजोर करती जाती है। रिश्तों को बचाने के लिए समय का निवेश करने की जरूरत होती है और सुख-साधन बटोरने का काम भी समय की माँग करता है। ऐसे में व्यक्ति समय निवेश करे भो तो कहाँ करे? यही बहुत बड़ी उलझन बन जाती है। दरअसल समय देने की क्रिया एक जटिल क्रिया है जिसमें समय के साथ और बहुत कुछ निवेश किया जाता है। मन-मस्तिष्क और ध्यान इस निवेश में शामिल है। ये तीनों क्वांटम स्तर पर ऊर्जा की सृष्टि करते हैं और यह ऊर्जा हमें उद्देश्य प्राप्ति की दिशा में ले जाती है। इसलिए सफलता हासिल करने के सवाल पर आने से पहले इंसान के लिए यह तय करना जरूरी है कि उसके लिए सफलता का क्या मतलब है? उसकी चाहत के कितने आयाम हैं? उनमें से महत्वपूर्ण आयाम कौन से हैं? और वह अपनी सर्वाधिक ऊर्जा का निवेश कहाँ करना चाहता है? मुँह में परिवार को सुखी बनाने का मंत्र हो और समिधा वस्तुओं को बटोरने के यज्ञ में दी जाए तो आदमी की स्थिति त्रिशंकु जैसी हो जाती है। परिवार को सुखी रखने के लिए बटोरी गई वस्तुओं में ही परिवार रमा रहता है और स्वजनों की आत्मा तक व्यक्ति की ऊर्जा पहुँच नहीं पाती। क्योंकि सारी ऊर्जा साधनों को बटोरने में लगा दी गई है। अन्य शब्दों में कहें तो स्वजनों को समय न दिए जाने के कारण उस रिश्ते में उचित ऊर्जा का निवेश नहीं हो पाता। इसका फल व्यक्ति उस उम्र में भोगता है जिस उम्र में उसे स्वजनों की सबसे ज्यादा जरूरत होती है। जीवन की इस स्थिति की व्याख्या भी विज्ञान के क्वांटम ऊर्जा की अवधारणा के जरिए पेश की जा सकती है। लेकिन वर्तमान शिक्षा पद्धति में तो विज्ञान को प्रयोगों की सीढ़ी पर चढ़े हुए एक आसमानी विषय के रूप में पेश किया जाता है। वैज्ञानिक चेतना के अभाव में जहाँ एक ओर जीवन की नदी सूख रही है वहीं विज्ञान को जीवन से काट देने वाले विषयों में ऊर्जा निवेश करके किताबी बुद्धि की नदी में बाढ़ लाई जा रही है।
वर्तमान दौर का फैशन है कि शुद्धाचरण की बात करने वाले को ज्ञानी बाबा या संत कहकर दूर से प्रणाम किया जाए लेकिन सफलता की मनमानी अवधारणा गढ़कर उसके पीछे दौड़ने वालों को यह नहीं दिखता कि ईमानदारी, विश्वास, वफादारी जैसे मूल्यों की दुर्लभता उनके जीवन में भी हर कदम पर मुश्किलें खड़ी कर रही हैं। शक, चौकीदारी, सुरक्षा के प्रश्नों पर ज्यादा ऊर्जा का व्यय करना पड़ रहा है। इतना ही नहीं वे खुद इन मूल्यों को लेकर चलने के प्रति भी आश्वस्त नहीं हैं। क्योंकि यह बात आम हो गई है कि आजकल भलाई का जमाना नहीं रहा। गौर से देखें तो सुख, शान्ति, शक्ति, आनन्द, ज्ञान, और प्रेम जैसे मूल्य प्राथमिक मूल्य हैं। इन मूल्यों के बगैर ईमानदारी, विश्वास, वफादारी जैसे मूल्यों को टिकने का आधार नहीं मिलता। प्राथमिक मूल्यों से आत्मा को मिली शक्ति से ही वह ईमानदारी, विश्वास और वफादारी जैसे गुणों का सृजन करती है। गौर करें कि आज हम सुख, शान्ति, शक्ति, आनन्द, ज्ञान और प्रेम पाने के लिए बाह्य साधनों पर निर्भर करने लगे हैं। आत्मा के भीतर ही इन मूल्यों का अक्षय कोष है यह जान ही नहीं पाते। आत्मा के विकास के प्रश्न को दरकिनार करके आधुनिक मानव प्राथमिक मूल्यों को बाहर खोजता है। आत्मा पर नियंत्रण पाए बगैर इन मूल्यों की खोज में खुद को परिस्थिति के हवाले कर देता है। तब परिस्थिति उसके ‘स्व’ को अपने इशारों पर नचाती है। आत्मतत्व को पुष्ट करने की शिक्षा के बगैर ‘स्व’ तत्व की ऊर्जा को जान पना मुश्किल है। यह शिक्षा प्राचीन भारत में विद्यमान थी। आज क्वांटम सिद्धांत में भी ऊर्जा के अनगिनत रूप होने की बात की जा रही है। लेकिन नई पीढ़ी विद्यालय स्तर से ऊर्जा के कुछ सीमित रूपों के बारे में ही जान पाती है तभी वह समझ भी नहीं सकती कि विचार भी एक ऊर्जा ही है। इंसान का दिमाग कम्प्यूटर के रैम की तरह है। इसमें से नकारात्मक स्मृतियों को डिलीट करने की जरूरत पड़ती है। क्योंकि ऐसी स्मृतियाँ वैचारिक ऊर्जा को अपने दायरे में फँसाकर उन्हें या तो नष्ट करती है या फिर उनसे नकारात्मक ऊर्जा को जन्म देती हैं। जिसे हम मनोवैज्ञानिक स्तर पर ईर्ष्या, द्वेष, घृणा जैसे तमाम भावों के रूप में महसूस करते हैं। एक बार किसी नकारात्मक स्मृति पर ध्यान केन्द्रित करके उससे शरीर पर तत्क्षण पड़ने वाले प्रभाव को महसूस करने की कोशिश करें तो वैचारिक ऊर्जा के प्रभाव का पता चल जाएगा। ठीक उसके बाद किसी शुभचिंता से भरी स्मृति को केन्द्र में रखकर यही प्रयोग किया जाए तो वैचारिक ऊर्जा के स्फूर्ति दायक लक्षण को भी महसूस किया जा सकता है।
वर्तमान शिक्षा विद्यार्थियों को परिस्थिति से मुकाबला करने का प्रशिक्षण नहीं देती। बल्कि शिक्षित होकर आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनने की बात करती है। और इसी को सफलता कहती है। व्यक्ति शिक्षित होकर आर्थिक दृष्टि से आत्मनिर्भर बनने से पहले अनगिनत दौरों से गुजरता है। अनगिनत लोगों के संपर्क में आता है, अनगिनत अनुभव अपनी झोली में बटोर लेता है, अनगिनत परिस्थितियों से टकराकर मन को स्थिर और आश्वस्त करने के लिए संघर्ष से गुजरता है। इस क्रम में कभी उसका अहं तो कभी संस्कार मन में बवंडर खड़ा करते हैं। वह इन बवंडरों से भी गुजरता है। अनजानी इच्छाएँ परिवेश से आकर उसके मन में घर जमा लेती हैं। इन इच्छाओं की पूर्ति और अपूर्ति के हिंडोलों में भी वह शिक्षित होने का प्रमाणपत्र पाने तक झूल लेता है। शिक्षित होने तक आत्मा के स्तर पर व्यक्ति इतना कुछ झेल लेता है। आत्मतत्व को समझने, उसे स्थिर और पुष्ट रखने के सुनिश्चित प्रशिक्षण के बगैर ही इन हालातों से टकराते हुए संस्कार उसके भीतर आकार लेने लगते हैं। परिस्थितियों के ठेलम ठेल में संस्कारों को यूं ही तैयार होने की इजाजत न देकर वैज्ञानिक ढंग से आत्म शिक्षा के जरिए इसे बचपन से ही तैयार करने की कोशिश की जाए तो समाज में सकारात्मक मूल्यों का प्रसार हो सकता है। लेकिन यह प्रशिक्षण विज्ञान सम्मत ढंग से एक अलग पाठ्यक्रम के संरचना की गुंजाइश रखता है।
यह बहुत बड़ी विडम्बना है कि व्यक्ति अपनी वैचारिक ऊर्जा को नजरअंदाज करके ऊर्जा के बाह्य साधनों की ही बात करता रहा है। हकीकत तो यह है कि वैचारिक ऊर्जा को जब उसने ऊर्जा के बाह्य साधनों को समझने में लगया तब उन साधनों का राज़ उसके सामने खुला। ऐसे ही सृष्टि में अनगिनत साधन हैं जिन्हें खोलने की चाभी व्यक्ति की वैचारिक ऊर्जा ही है। इस लिहाज से देखें तो वैचारिक ऊर्जा को पैदा करने वाली आत्मशक्ति इस सृष्टि का कितना बड़ा तोहफा है। व्यक्ति में एक मिनट में पच्चीस से तीस किस्म के विचार जन्म लेते हैं। दिन भर में मन में उठने वाले विचारों की संख्या कितनी विशाल होती है यह सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है। लेकिन व्यक्ति अगर अपने मन में उठने वाले विचारों के प्रति सचेत न हो तो उसके भीतर से पैदा होने वाली यह ऊर्जा दिन में किस परिमाण में नष्ट होती है, इसका अंदाज लगाना कठिन नहीं है। आत्मशक्ति को जानने और नियंत्रित करने का प्रशिक्षण मिले तो दिन भर में फलदायक विचारों को पैदा करके उन्हें सुनिश्चित दिशा में प्रवाहित किया जा सकता है। इस तरह किसी क्षेत्र में निवेश की गई वैचरिक ऊर्जा से उस क्षेत्र को जानने का द्वार खुल सकता है। हर व्यक्ति का आत्मतत्व अनोखा और मौलिक है। इस आत्मतत्व को जानने के लिए ऊर्जा का निवेश करने का प्रशिक्षण अनगिनत लोगों को सृष्टि के अनगिनत सत्यों को जानने का मौका दे सकती है। यहाँ एक बात गौरतलब है कि विकारमुक्तता आत्मा की सर्वाधिक परिपुष्ट स्थिति है। अंतर्मन में उठने वाले विचारों को सचेत होकर देखना और नकारात्मक विचारों को पहचान कर खुद को उससे मुक्त करते रहने की प्रक्रिया ही आत्मा को उत्तरोत्तर सशक्त बनाने की प्रक्रिया है। आत्मिक दृष्टि से सशक्त व्यक्ति का रिमोट परिस्थिति के हाथ में नहीं होता। बल्कि वह अपने चुनाव के अधिकार का प्रयोग करते हुए सूझबूझ के साथ अपनी प्रतिक्रिया का चुनाव करता है। उसकी आत्मा का पासवर्ड सिर्फ उसके पास होता है। वह किसी अनिष्टकारी सोच को अपने आत्मतत्व को विचलित करने की इजाजत नहीं देता।
आधुनिक समाज में भौतिक साधनों के आधार पर जीवन स्तर को नापा जाता है। आन्तरिक साधनों की घोर उपेक्षा के कारण ऊँचा जीवन स्तर हासिल करने के बावजूद भी धन सम्पन्न लोगों के जीवन में गुणवत्ता की कमी पाई जाती है। आत्मतत्व को समृद्ध करने की शिक्षा के बगैर जीवन की गुणवत्ता को बढ़ाने के सवाल पर विचार करना नामुमकिन है। आज समाज एक ऐसे दौर से गुजर रहा है जहाँ आत्मविकास की शिक्षा का कोई विकल्प नहीं है। समाज हो या साहित्य सबमें आत्मस्खलन और आत्मा के संकट का प्रश्न ही मुँह बाए खड़ा है। आत्मस्खलन के चलते सांस्कृतिक संकट की जड़ें जीवन और समाज में गहराती जा रही हैं। इस संकट को चुनौती देना आज के युग की बहुत बड़ी माँग है।
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