प्रकाशित : सलाम दुनिया 28 सितंबर 2015
एक शिक्षित युवा जब बेरोज़गार होता है तब वह मानसिक स्तर पर अकाल के हालात से गुजरता है। इस अकाल के बीज को शिक्षा व्यवस्था या शिक्षण पद्धति में खोजना जरूरी है। अकाल को अक्सर खाद्यन्न की कमी से जोड़कर देखा जाता रहा है। अमर्त्य सेन ने गरीबी एवं अकाल के विषय पर लिखे अपने निबंध में यह बात स्पष्ट कर दी है कि अगर एक व्यक्ति अपनी क्षमताओं या उसके अधिकार की वस्तुओं के बदले में अपने जरूरत का सामान न जुटा पाये तो देश में इफ़रात में अन्न होते हुए भी भुखमरी का शिकार हो सकता है ।
शिक्षा से हासिल ज्ञान से अगर व्यावहारिक स्तर परकोई कार्य करने की दृष्टि न मिले तो शिक्षा से सही मायने में क्षमताओं का विकास संभव नहीं होता। क्षमता ही शिक्षित युवा को रोज़गार हासिल करने के काबिल बनती है। पिछले कई दशकों से समाज में नौकरी का बाज़ार एक अजीबोगरीब दौर से गुजरा है। आज एक ओर बेरोजगारों की लंबी फौज है और दूसरी ओर समाज को समृद्ध करने वाले ऐसे कार्य नहीं दिखते जो रोज़गार का साधन बन सके। अगर एस हो पाता तो जीविकोपार्जन, आत्मिक विकास और सामाजिक विकास की दिशा एक हो सकती थी। समाज में आज कई तरह के पूंजीपति पैदा हो गए हैं जो अपनी तुलना में कम क्षमता रखने वालों को न्यूनतम तनख्वाह देकर काम पर लगाते हैं। इन्हें समाज में ऐसे शिक्षित बेरोजगार मिल ही जाते हैं जिनके पास डिग्री है लेकिन ज्ञान की धार नहीं है। जेरक्स की दुकानों, कॉल सेंटर, सेल्स तथा रिसेप्शन में इस वर्ग के शिक्षित मिल जाते हैं। कक्षा में पढ़ाई गई विषयवस्तु इस वर्ग के लिए सिर्फ सूचना बनकर रह जाती है। सूचना से कान्सैप्ट और इससे आगे चलकर विज़न नहीं तैयार हो पाता। यह बात गौरतलब है कि ऐसे शिक्षितों की संख्या हमारे देश में लगातार बढ़ रही है। ये हमारी शिक्षा व्यवस्था के बाई प्रॉडक्ट हैं। इनकी सबसे बड़ी ट्रेजेडी यह है कि इनका अहं इन्हे ’ब्लू कलर जॉब’ करने की इजाजत नहीं देता, डिग्री इनमें बड़ी नौकरी की आशाएँ भरती हैं लेकिन बाज़ार में इनके लिए कुछ ऐसे ’व्हाइट कलर जॉब’ होते हैं जहां इन्हे आत्मसम्मान को भूलकर कम तनख्वाह में ही काम करना पड़ता है। क्षमता का अभाव इन्हें बेहतर राह खोजने के काबिल ही नहीं छोड़ता। शिक्षा से क्षमता के सही विकास के अभाव में इन शिक्षितों के जीवन में ठहराव आ जाता है। जिससे डिप्रेसन पनपता है।
सिक्के के दूसरे पहलू में वे महत्वाकांक्षी तेज दिमाग के विद्यार्थी हैं जो स्व से बाहर कुछ देख ही नहीं पाते। ये बड़ी नौकरी पाकर सुख-सुविधाएं बटोरने की दौड़ में शामिल होकर कभी उच्च पदस्थों से दबकर या फिर निम्न पदस्थों को दबाकर जिंदगी को बेलगाम दौड़ाते हैं। तनाव से पैदा होने वाली मानसिक और शारीरिक बीमारियाँ इनका भी पीछा नहीं छोड़ती। इन समस्याओं से जूझने के लिए शिक्षा से जीवन दर्शन का विकास जरूरी है। विषय को जब जीवन से जोड़ा जाएगा तब वह न सिर्फ रुचिकर होगा बल्कि उससे जीवन ज्ञान भी पैदा होगा। हिन्दी के लेखक मुक्तिबोध का मानना था कि ज्ञान के दांत जब तक जींदगी की नाश्पाती में नहीं गढ़ते तब तक वह अधूरा रहता है। ज्ञान अधूरा रह जाए तो विज़न तैयार नहीं हो पाता।
इंसान को अगर परमाणु माने तो जीवन दर्शन प्रोटोन है जो व्यक्ति की क्षमताओं और व्यवहार रूपी इलेक्ट्रॉन को उद्देश्य से बांध कर रखती है। आज का युवा नौकरी पाने के उद्देश्य से शिक्षा हासिल करता है। वह बाज़ार की शर्तों पर प्रॉडक्ट की तरह तैयार होता है। वस्तु का संवेदनहीन होना स्वाभाविक है। तभी क्या समाज में आज संवेदनहीनता बढ़ती जा रही है?
जीवन-ज्ञान का विकास करने वाली शिक्षा पद्धति तथा पाठ्यक्रम को आकार देने के लिए बड़े स्तर पर सार्थक कार्यशालाओं के आयोजन की जरूरत है। पाठ्यक्रम की विषयवस्तु को जिंदगी के सवालों से कैसे जोड़ा जाए यही एक बहुत बड़ी चुनौती है। मसलन इतिहास को ही लें। इतिहास के विद्यार्थियों को यह सोचने के लिए प्रेरित किया जा सकता है कि जब आज की तरह सुरक्षा के तकनीकी साधन नहीं थे तब बड़े सम्राट अपने साम्राज्य को कैसे संभालते होंगे? अपने शरीर, मस्तिष्क और आत्मा को अज्ञात अनिष्ट के भय से कैसे मुक्त रखते होंगे? इन्हीं सवालों का सूत्र पकड़कर दृढ़ व्यक्तित्वों के निर्माण में शिक्षा संस्कृति पर विचार करने का प्रश्न आ सकता है। आज जब भय, आतंक आधुनिक नगर बोध का अंग बन गया है तब जूझारू जीवन दृष्टि के विकास के लिए ऐसे सवालों पर विचार करना जरूरी भी हो गया है।
उच्च शिक्षा में जीवन और समाज के गंभीर सवालों से जूझने की राह खोजने का हुनर सिखाया जाए तो विद्यार्थियों में जीवन ज्ञान के साथ ही शोध दृष्टि भी विकसित होगी। यह दुर्भाग्य की बात कि आज देश भर में इफरात में शिक्षण संस्थान होने के बावजूद शिक्षा से जीवन और समाज के काम आने वाला बोध विकसित नहीं हो पा रहा है। शिक्षा अगर सिर्फ सूचना देने तक ही सीमित रह जाए तो यह काम तो रोबोट भी कर सकते हैं। जापान, कोरिया जैसे देशों में तो रोबोट विद्यालय स्तर पर शिक्षक का काम कर रहें हैं। कभी मशीनों ने श्रमिकों को विस्थापित किया था। आने वाली सदियों में रोबोट अगर शिक्षकों को विस्थापित कर दें तो न सिर्फ शिक्षा संस्कृति खतरे में पड़ेगी बल्कि समाज में संवेदनहीनता भी बढ़ेगी।
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