सत्य का अस्तित्व और भाषा की सीमाएँ

सत्य का अस्तित्व और भाषा की सीमाएँ

सत्य की खोज विज्ञान एवं दर्शन का ध्येय रहा है। इस राह में मिले ज्ञान को अभिव्यक्त करने में भाषा की सीमाओं का एहसास वैज्ञानिकों और दार्शनिकों दोनों को हुआ। वैज्ञानिक स्तर पर खोजे जाने वाले सत्य का स्वरूप ही अगर साधारण तौर पर प्रचलित सोचने समझने की दृष्टि और तर्क के ढाँचे में न बैठ पाए तो वैज्ञानिक इसे किस तरह अभिव्यक्त करे? यहाँ गणित की सांकेतिक भाषा एक माध्यम बन सकती है, लेकिन ऐसा कोई माध्यम नहीं है जो गणित के चिह्नों को साधारण भाषा में अभिव्यक्त करने में मददगार साबित हो सके। तब गणित की भाषा में अभिव्यक्त सत्य का साधारण भाषा में रूपांतरण एक चुनौती बन जाती है। पदार्थ वैज्ञानिक हाईजेनबर्ग साफ शब्दों में इस बात का बयान करते हैं कि ‘कितना भी कोशिश कर लें लेकिन परमाणु की संरचना के संबंध में साधारण भाषा में बात करना संभव ही नहीं हो पाता।’
सामान्य तौर पर इस्तेमाल की जाने वाली अवधारणाएँ परमाणु की सूक्ष्म स्तरीय संरचना की अभिव्यक्ति में मददगार साबित नहीं हो पाती। उसी तरह अनुभूत सत्य की अभिव्यक्ति की समस्या दार्शनिक भी सदियों से महसूस कर रहे हैं। इस संदर्भ में कठोपनिषद् में अभिव्यक्त यह भाव दृष्टव्य है – “जहाँ आँखे नहीं पहुँचती, जहाँ न मन और न ही वचन से पहुँचा जा सकता है, जो हम नहीं जान पाते, समझ नहीं पाते उसे कैसे सिखाएँ।” (कठोपनिषद् 3.15)
सत्य का स्वरूप वैज्ञानिकों को किस तरह उलझन में डालता है, यह भी समझने की जरूरत है। विद्युत चुम्बकीय विकिरण में एक साथ कणों और तरंगों के गुण कैसे मिल सकते हैं? इस सवाल ने वैज्ञानिकों को बहुत उलझाया। पराबैगनी किरणें जब धातु की सतह पर गिराई गईं तब विकिरण ने धातु की सतह से कई इलेक्ट्रान विस्थापित कर दिए। इसका मतलब ये कि किरणों में गतिमान कण हैं जो इलेक्ट्रॉन को विस्थापित कर सकते हैं। यही स्थिति एक्स रे की किरणों के प्रयोग में भी देखी जा सकती हैं। लेकिन इस प्रक्रिया को हम सिर्फ किरणों में मौजूद कणों और इलेक्ट्रॉन के संघर्ष के उदाहरण के रूप में व्याख्यायित नहीं कर सकते। क्योंकि इन किरणों में तरंगों के फोटो इफेक्ट के लक्षण पाए जाते हैं। इस सत्य को वैज्ञानिक भाषा में किस तरह पेश करें यह वैज्ञानिकों के सामने एक बड़ी चुनौती है। जो प्रमाण मिल रहा है उसे सीधे साफ ढंग से संपूर्ण विरोधाभासों के साथ सामने रख देने के अलावा वैज्ञानिकों के पास कोई रास्ता नहीं बचता। यह विरोधाभास ही सत्य को फ़ॉर्मूला का रूप देने में कठिनाई पैदा करता है। फ़ॉर्मूलों के जरिए सत्यापित न हो पाने के कारण क्वांटम संबंधी अवधारणाओं को वैज्ञानिक न्याय से स्वीकृति हासिल करने में कठिनाइयों का सामना करना पड़ रह है।
न्यूटन ने क्लासिकल पदार्थ विज्ञान में वस्तुओं की प्रकृति को समझाने के लिए ब्रह्मांड के मॉडल से लेकर अविभाजित इकाई परमाणु की संरचना और गति पर प्रकाश डाला है। यहाँ परमाणु के लक्षण को बोधगम्य बनाने के लिए बिलियार्ड की गेंदों का इस्तेमाल किया गया है। लेकिन इन गेंदों द्वारा पेश की गई हकीकत क्या परमाणु की दुनिया की हकीकत है भी या नहीं। यह एक बहुत बड़ा सवाल है। इस बात को जाँचने के लिए प्रयोग करना भी संभव नहीं है। यहाँ सत्य का स्वरूप ऐसा है जो अनुमानों के जरिए पकड़ में आता है लेकिन ज्ञानेन्द्रियाँ इसका प्रत्यक्ष अनुभव नहीं हासिल कर पातीं।
ज्ञानेन्द्रियों द्वारा प्रत्यक्ष रूप से पकड़ में न आने वाले सत्य को समझाने के लिए ताओ दर्शन में विरोधाभासी पहेलियाँ बहुत ही कसी हुई काव्यात्मक भाषा में पेश की गई हैं। इनका लक्ष्य होता है पाठक के दिलो दिमाग को तर्क और कारण कार्य संबंधों की जानी पहचानी पटरी से बाहर निकालकर उन्हें सोचने के लिए मजबूर करना। प्रकृति के ऐसे ही एक अद्भुत सत्य की बात अमीर खुसरो की इस मुकरी में भी दिखती है –
‘एक थाल मोती से भरा, सब के सिर पर औंधा धरा।
चारों ओर वह थाली फिरे, मोती उससे एक न गिरे॥ (आकाश)
प्रकृति के अद्भुत लक्षणों ने बार-बार कवियों, दार्शनिकों और वैज्ञानिकों को सोचने के लिए मजबूर किया है। हम दृश्यमान जगत को अपने ज्ञानेन्द्रियों के जरिए जिस तरह देखते हैं उस द-ष्टि को चुनौती देने के लिए प्राचीन दार्शनिकों ने खास शिक्षा पद्धति विकसित की थी। इस पद्धति में साधारण समझ को चुनौती देने वाले सवालों के जरिए विद्यार्थियों के दिलो दिमाग में ब्रह्मांड की प्रकृति को समझने की ललक और जिज्ञासा पैदा की जाती थी। यहाँ शिक्षक निर्देशों के जरिए विद्यार्थियों में जिज्ञासा पैदा करते हुए प्रकृति को समझने और महसूस करने की शिक्षा देता था। ऐसी ही जिज्ञासा क्वांटम सिद्धांत पर काम करने वाले वैज्ञानिकों में भी मिलती है। इस संदर्भ में बोहर से मिलने के बाद हाईजेनबर्ग की मानसिक स्थिति को प्रस्तुत करने वाली यह पंक्तियाँ देखी जा सकती हैं – “मुझे बोहर के साथ देर रात तक चलने वाली वह बातचीत याद है जो हताशा में खत्म हुई थी। और जब बातचीत के बाद मैं अकेला पास के पार्क में सैर के लिए निकला तब मैं इस प्रश्न को बार-बार दोहराता रहा कि क्या प्रकृति वाकई इतनी अजीब है जितनी कि वह इन प्रयोगों में हमें दिखाई दे रही हैं।” दरअसल हम अपनी आंखों से जो भी देखते हैं और जो कुछ भी सुनते हैं वह सिर्फ सत्य का प्रभाव है। सत्य का स्वरूप ज्ञानेन्द्रियों की पकड़ में नहीं आता। यहाँ वह समझ किसी काम की नहीं जो ज्ञानेन्द्रियाँ वस्तु के जरिए सीधे ढंग से हासिल करती हैं। इसलिए ज्ञानेन्द्रियों के जरिए हासिल बिम्ब पर निर्भरशील भाषा सत्य से संबंधित अनुभूति को अभिव्यक्त करने में अक्षम होती है। सत्य या प्रकृति को जानने की यात्रा में हम जितनी गहराई में उतरते हैं उतना ही हमें सामान्य भाषा के बिम्बों और अवधारणाओं को छोड़ना पड़ता है। विज्ञान में यह यात्रा परमाणु की संरचना को जानने की गहराई में उतरने की यात्रा है जो अंतहीन है। यहां विज्ञान और दर्शन दोनों ही उन अनुभवों पर निर्भर हैं जो ज्ञानेन्द्रियों से परे हैं। भले ही दोनों के सोच की जमीन एकदम अलग हो।
वर्तमान दौर में शिक्षा हासिल करने का उद्देश्य डिग्री पाने तक सिमट कर रह गया है। और ज्ञान की अवधारणा सूचना तक सिमट कर रह गई है। ऐसे में सूक्ष्म से सूक्ष्मतर सत्य, जो जीवन को घेरे हुए हैं उसके प्रति नई पीढ़ी को शिक्षा के जरिए सचेतन बनाने की राह खोजना एक बहुत बड़ी चुनौती है।

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