सत्य-ज्ञान की शिक्षा

सत्य-ज्ञान की शिक्षा

अर्थ शब्द की आत्मा है। अर्थ के अभाव में शब्द प्रभावहीन ध्वनि समूह बनकर रह जाता है। समाज में कई सार्थक शब्द ऐसे भी हैं जिन्हें इंसान अपने कर्मों से सही मायने में सार्थक बनाता है। व्यवस्था ऐसा ही एक शब्द है। व्यवस्था की सार्थकता उसे मानने वालों के जीवन को विकास की सही गति और दिशा देने में है। व्यवस्था शब्द को समाज के लिए सार्थक बनाने का दायित्व मनुष्य पर है। तमाम व्यवस्थाओं में शिक्षा व्यवस्था का स्थान खास है। वह नई पीढ़ी के मानसिक गठन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हुए समाज के भविष्य को बेहतर बनाने में योगदान देती है। भारतीय संस्कृति में इस व्यवस्था को प्राचीन काल से ही आत्मिक विकास के जरिए जीवन को सार्थक बनाने की राह दिखाने के लिए खास महत्व दिया जाता रहा है। आज शिक्षा से आत्मिक विकास का मुद्दा हट गया है। इस वजह से शिक्षा के जरिए सत्य का ज्ञान हासिल करने और जीवन दर्शन विकसित करने की बात भी बेमायने हो गई है। शिक्षा के जरिए आत्मविकास न हो पाने और जीवन को सही दिशा न मिल पाने के कारण पैदा हुई शून्यता का लाभ उठाकर बाह्य साधनों को हासिल करके तृप्त और सफल होने के जुमले ने समाज में जड़ें जमाई। सुख, संपत्ति, नाम, यश कमाने की अंधी दौड़ में इंसान यंत्र की तरह दौड़ने लगा। वर्तमान दौर में सत्य-ज्ञान और जीवन दर्शन के विकास के लिए मन और शरीर के पारस्परिक संबंध पर प्रकाश डालने वाली शिक्षा का प्रचार-प्रसार जरूरी है। तभी शिक्षा समाज को सुसंस्कृत पीढ़ी का तोहफा दे सकती है।
भारतीय संस्कृति में धर्म ने प्राचीन काल में शिक्षा दान में अहम् भूमिका निभाई है। आत्ममुक्ति और आत्मबोध के प्रश्न यहाँ धर्म के ही दायरे के मुद्दे रहे हैं। यहाँ धर्म से आशय जीवन को समृद्ध करने की राह दिखाने वाली उस आचार संहिता से है जो व्यक्ति में आत्मबोध और दायित्वबोध जगाकर उसके जीवन को सार्थक बना सकती है। भारतीय संस्कृति में शिक्षा द्वरा निभाई गई इस भूमिका ने भारत के नामकरण को भी प्रभावित किया है। भारत के लिए प्रयुक्त ब्रह्मर्षिदेश, ब्रह्मावर्त, आर्यावर्त आदि नामों में, यहाँ प्रचलित शिक्षा संस्कृति की ही गंध मिली हुई है। ऋषि ज्ञान दाता थे तो ब्रह्म ऋषियों के साध्य और आर्य, वेद को रचने वाली जाति। ऋषि, ब्रह्म, आर्य शब्दों के साथ ज्ञान का संबंध किसी न किसी तरह जुड़ा हुआ है। शिक्षा के जरिए सत्य को जानने का प्रशिक्षण देना भारतीय संस्कृति का रिवाज रहा है। सत्य को जानने की राह बहुत संघर्षशील है। समाज के तमाम संस्कार, अनुभव, हमारी सत्य की समझ को घटना और वस्तु से बाँध देते हैं। इस तरह हमारी समझ शाश्वत सत्य से दूर हट जाती है। इसकी व्याख्या हालात के उधेड़बुन में उलझ जाती है।
सत्य को जानने के प्रशिक्षण के दौरान प्रकृति के निरीक्षण से इस एहसास का जगना काम्य है कि मनुष्य भी प्रकृति का ही अभिन्न अंग है। इसी बिंदु से आत्म और विश्व को देखने का नजरिया विकसित होता है। हमारे देखने के ढंग पर ही हमारे ज्ञान का साम्राज्य टिका होता है। इस लिहाज से देखें तो शिक्षा खुद को एवं विश्व को देखने का ढंग सिखाती है। वर्तमान शिक्षा व्यवस्था सूचनाओं के पुलिंदों को विद्यार्थियों के दिमाग में ठूँस रही है। और इन्हीं सूचनाओं के जरिए बोध विकसित करने का प्रयास कर रही है। इस बोध में विश्व दृष्टि और जीवन दृष्टि पैदा करने की ताकत नहीं है। इस शिक्षा संस्कृति में विद्यार्थियों की स्मृति पर इतना दबाव रहता है कि अलग से मनन-चिंतन का मौका ही नहीं मिलता। प्रकृति के निरीक्षण को प्रोत्साहन देने वाला कोई विषय भी विद्यालय में नहीं है। परिवेश विज्ञान का अनिवार्य विषय प्रकृति निरीक्षण का मौका नहीं देता। बल्कि निर्जीव ढंग से प्रकृति से संबंधित बातों को सामने रखता है। इस तरह शिक्षा के जरिए प्रकृति और विश्व को समझने की दृष्टि कैसे पैदा होगी? प्रकृति का अंग होने के नाते इंसान की भूख, प्यास, चाहत, उन्नति की तमाम कोशिशें और उसका साफल्य प्रकृति से ही जुड़ा विषय है। आज मानव जाति जिस मुकाम पर खड़ी है वह अनन्त काल से मनुष्य द्वारा की गई चेष्टाओं का ही फल है। गौर करने लायक बात यह है कि मनुष्य के जीवन में आए इन तमाम बदलावों को इतिहास, भूगोल, विज्ञान, मनोविज्ञान, साहित्य जैसे तमाम विषयों में बाँटकर इस तरह पेश किया गया कि मनुष्य और प्रकृति एक-दूसरे से पृथक महसूस होने लगी। बोध की सुकरता के लिए विषयों का वर्गीकरण करने के क्रम में मनुष्य की जड़ें प्रकृति से अलगा दी जाएँ तो भटकन की स्थिति तो पैदा होगी ही।
वह ब्रह्मांड जिसके हम अंग हैं उसे अविभक्त सत्य के रूप में देखना जरूरी है। इसमें गति है, प्राण है जीवनी शक्ति है। यह आध्यात्मिकता और वस्तुवादी सोच दोनों का आधार है। इस सच की अवहेलना करके ज्ञान को कटघरों में बाँटकर परोसा जाएगा तो आदमी सत्य के असंख्य रूप देखकर चकराता रहेगा और सत्य को खंडों में ही बाँटकर देखेगा। हम किसके अंग हैं? हमारी स्थिति कहाँ है? और शिक्षा हासिल करने का लक्ष्य क्या है? इन सवालों के जवाब स्पष्ट न हों तो बाजारवादी सोच नौकरी के लिए शिक्षा, सफल बनने के लिए शिक्षा (जहाँ सफलता का अर्थ धन कमाना है) के उद्देश्य को समाज में जमाकर नई पीढ़ी के दिलो दिमाग और नैतिक चेतना को कमजोर बनाती रहेगी। इसलिए आत्मतत्व और प्रकृति को समझने और देखने का ज्ञान आज शिक्षा के जरिये दिया जाना जरूरी है।
भारतीय दर्शन में देखने की क्रिया भले ही आँखों से देखने से शुरू होती हो लेकिन वह हमेशा ज्ञानेन्द्रियों से परे ले जाने वाली सत्य की अनुभूति में रूपांतरित हो जाती है। यह एक कला है। इसमें कुशलता हासिल करने के लिए आत्मा को प्रशिक्षित किया जाता है। इस प्रशिक्षण का लक्ष्य है सत्य को उसके शुद्ध रूप में अनुभूत करना। दुख, दर्द, खुशी के जरिए हम जो अनुभूत करते हैं वह सत्य का प्रभाव मात्र है विशुद्ध सत्य नहीं।
प्रकृति की अवधारणा आज पेड़, पौधे, पशु, पक्षियों तक सिमटकर रह गई है। प्रकृति में सभी जीव शामिल हैं। सब सृष्टि के नियम से बँधे हैं। सृष्टि के नियम से बाहर जाने के साथ ही जीवन में दुख दर्द का हमला होता है। अफसोस की बात यह है कि इस बात को स्वीकार करने वाले लोग बहुत कम मिलते हैं जो सृष्टि के नियम और गति को समझने को शिक्षा का विषय मानते हैं। इस तरह की शिक्षा से ज्ञान चक्षु खुल सकता है और व्यक्ति में नीर क्षीर विवेक जन्म लेता है। विद्यार्थियों की अंतर्शक्ति और अन्तर्प्रज्ञा की उपेक्षा करके ज्ञान का ऊपर से थोपा जाना, वर्तमान शिक्षा व्यवस्था की बहुत बड़ी कमजोरी है। विवेकानन्द का भी कहना था कि शिक्षा का लक्ष्य आत्मा में स्थित ज्ञान को जगाना है। इस ज्ञान को पाने के प्रशिक्षण के दौरान बुद्धि को शान्त करके अपनी चेतना को अंतर्मन पर केन्द्रित करने की बात की जाती है। इसी कठिन काम के लिए कभी सांसों पर ध्यान केन्द्रित करने तो कभी मंत्रों पर तो कभी किसी चित्र पर ध्यान केन्द्रित करने की बात की गई है। खेलकूद, नृत्य, संगीत जैसी तमाम कलाओं में व्यक्ति को इस स्थिति तक ले जाने की ताकत है। गौर करें कि आज इन कलाओं का प्रशिक्षण धन और यश कमाने के उद्देश्य से ज्यादा और आत्मा से तादात्म्य स्थापित करने के उद्देश्य से कम दिया या लिया जाता है।
सबसे अहम बात यह है कि आत्मशक्ति की साधना का प्रशिक्षण केवल भाषण से नहीं दिया जा सकता। विद्यार्थियों को लम्बे समय तक शरीर में इसका अभ्यास करना पड़ता है। जब बुद्धि शान्त हो जाती है तब आत्मचेतना स्वयं सजग हो उठती है। लम्बे समय से विज्ञान पर छाये क्लासिकल मेकानिक्स की छाया के चलते अंतर्ज्ञान से संबंधित विषय उपेक्षित रहे। यहाँ ब्रह्मांड को यांत्रिक दृष्टि से देखा गया। ब्रह्मांड के साथ मानव के अंतर्संबंध पर विचार का तो प्रश्न ही नहीं उठा। यही सोच आज भी हमारे शिक्षा जगत को घेरे हुए है। इसलिए आज के वैज्ञानिक अंतर्प्रज्ञा से प्राप्त ज्ञान की प्रामाणिकता पर प्रश्नचिह्न लगाकर इसकी उपेक्षा करते हैं। शुद्धाचरण की माँग करने वाले सृष्टि के नियमों की उपेक्षा का फल आज का आधुनिक समाज मानसिक स्तर पर भोग रहा है।
आत्म ज्ञान हासिल करने के प्रशिक्षण से विद्यार्थी कुशल योद्धा जैसी अनोखी सजगता हासिल करता है। वह परिवेश को विशुद्ध रूप से महसूस करता है वह भी बुद्धि के हस्तक्षेप के बगैर। यह चेतना का एक ऐसा स्तर है जहाँ हर तरह का बिखराव खत्म हो जाता है। व्यक्ति की चेतना समूचे परिवेश से एकात्म होकर सजग हो जाती है। इस अनोखी सजगता की अवस्था में वास्तव जगत के शब्द, दृश्य और परिवेश के दूसरे तत्व मन को छूते तो हैं पर मन उन्हें बह जाने देता है, उन्हें पकड़कर विश्लेषित नहीं करता। इन तत्वों को ध्यान को भंग करने की इजाजत नहीं दी जाती। यहाँ मन की स्थिति उस योद्धा जैसी होती है जो पल भर के लिए भी ध्यान से हटे बगैर अपनी सजगता से अपने परिवेश में आ रहे बदलाव को महसूस कर लेता है। इस लिहाज से देखें तो योगी और योद्धा की भूमिका में साम्य है। भगवद् गीता में भी अर्जुन को अपने संशय से मुक्ति युद्ध क्षेत्र में ही मिली थी। जैसा युद्ध क्षेत्र बाहर था, वैसा ही मन के भीतर भी। आज तो मन के भीतर का युद्ध समझौतापरस्ती और सुविधाभोगी दृष्टि के कारण जन्म ही नहीं पाता। मानवता की रक्षा के लिए इस युद्ध का मन में छिड़ना जरूरी है।
सृष्टि के नियमों के ज्ञान का अभाव, प्रकृति का संकुचित ज्ञान, सूचनाओं को ज्ञान का दर्जा देकर शिक्षा के जरिए उसे विद्यार्थियों के दिमाग में ठूँसने की नीति नई पीढ़ी में अंतर्ज्ञान को जगने का मौका ही नहीं देती। आत्मा को पुष्ट करने के लिए आवश्यक ज्ञान जब तक शिक्षा के पाठ्यक्रम का अंग नहीं बन पाएगा, तब तक मानसिक स्तर की समस्याओं से आधुनिक समाज को छुटकारा मिलना कठिन है। आत्मा की प्रकृति को जानकर सृष्टि को समृद्ध करने के लिए यदि नई पीढ़ी को प्रशिक्षित किया जाए तो सही मायने में प्रगतिशील समाज का विकास हो सकता है।

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