आत्म चेतना और शिक्षा संस्कृति

आत्म चेतना और शिक्षा संस्कृति

यह बात सदियों से प्रचलित है कि मानव शरीर पंच तत्वों से बना है यह शरीर प्रकृति का अंग हैं प्रकृति के अन्य जड़ और चेतन पदार्थो की तरह यह भी अणु-परमाणुओं से बना है।मनुष्य की चेतना ही उसे प्रकृति के अन्य अंगो से श्रेष्ठ बनती है। शरीर को जैसे प्रकृति का अंग माना गया है, वैसे ही शरीर को चलाने वाली आत्मा को परमात्मा का अंग मानने की रीत भी वैदिक युग से चली आ रही है। वह आत्मा ही है जो महसूस करती है। शरीर में तो सिर्फ प्रतिक्रिया घटित होती है। शरीर के अंगों या फिर रक्त या हॉरमोन में इस प्रतिक्रिया की छाप मिलती है।
आत्म तत्व शरीर के अन्य अंगों की तरह दिखाई नहीं देता, क्योंकि यह पदार्थ नहीं ऊर्जा है । यह ऊर्जा दिमाग के जरिए पूरे शरीर पर नियंत्रण रखती है । दिमाग से जुड़ा मानव शरीर का स्नायु तंत्र इसी ऊर्जा के अधीनस्थ होकर काम करता है । आत्मिक ऊर्जा का इस्तेमाल किस काम में कैसे हो रहा है यही बात जीवन की गति और दिशा को निर्धारित करती है । चेतना आत्मिक ऊर्जा का ही एक रूप है। मन और बुद्धि भी एब्सट्रेक्ट है, जो आत्मिक ऊर्जा का प्रयोग करके ही चेतना को जन्म देती है । विज्ञान में जब से सिर्फ प्रयोग के जरिया प्रमाणित तथ्यों को ही सत्य मानने की रीत चल पड़ी है, तब से शिक्षा क्षेत्र से भी आत्म तत्व के अध्ययन का प्रश्न मिटता चला गया है ।
सन 1920 के बाद सामने आए क्वांटम चेतना के तथ्यों ने इस बात को प्रकाशित किया है कि ऊर्जा के अनगिनत रूप होते हैं । जिन रूपों के अस्तित्व का प्रमाण मिलता है, विज्ञान सिर्फ ऊर्जा के उतने ही रूप मानता है। बल्कि हकीकत तो यह है कि वह ऊर्जा ही है जो परमाणु में सक्रीय रहती है और परमाणुओं को जोड़ कर उसे पदार्थ का रूप देती है । और फिर पदार्थों में चेतना को जन्म देती है। दर्द का एहसास मनुष्य और पेड़-पौधों दोनों को होता है । लेकिन पेड़-पौधों में मुखर अभिव्यक्ति नहीं मिलती क्योंकि चेतन पदार्थ होने के बावजूद इन दोनों में व्याप्त ऊर्जा की प्रकृति में अंतर है । एक ओर विज्ञान का एक सीमा में बंध कर रह जाना और दूसरी ओर शिक्षा संस्कृति में आत्मा की अवधारणा पर विचार के प्रश्न की उपेक्षा ने वक्त के साथ लोगों की दृष्टि को संकुचित कर दिया । शिक्षा व्यक्तियों के देखने के नजरिए को प्रभावित करके सामाजिक स्तर पर किसी विचारधारा को प्रतिष्ठित कर सकती है शिक्षा क्षेत्र में आत्मतत्व पर विचार के उपेक्षित रह जाने से आत्मतत्व में स्थित ऊर्जा का ज्ञान समाज में नहीं फैल पाया। इसी से हिंसात्मक प्रवृत्ति,हताशा, व्यर्थता बोध, अवसरवादिता जैसी आत्मा के स्तर की तमाम समस्याओं को फलने फूलने की जमीन मिली।
ऊर्जा से चलने वाला मानव शरीर एक उपकरण मात्र है । इसे चलने वाली ऊर्जा को आत्मा कहते है। यही ऊर्जा प्राण बनकर भौतिक शरीर को सक्रिय रखती है और चेतना और विचार के जरिए जीवन को गति और दिशा देती है। शरीर का उपकरण दिमाग तो एक भौतिक पदार्थ मात्र है, जिसे आत्मा का कंट्रोल रूम कहा जा सकता है । महात्मा गांधी का कहना था कि व्यक्ति की सोच उसके कथन और उसके कर्म की दिशा अगर एक हो तो जीवन में आनंद का समवेश होता है। आत्मा की प्रकृति की उपेक्षा करके जब मनुष्य बाहरी सुख सुविधाओं की ओर दौड़ने लगता है, तब जीवन से आनंद तिरोहित होता जाता है । इस हालत में आत्मा तो प्राण रूप में शरीर में रहती ही है लेकिन उसके ऊर्जा रूप के प्रति अज्ञानता व्यक्ति की सोच को भौतिक स्तर की संकुचित गली में अटका देता है । इस ऊर्जा को पहचान कर उसका पोषण किए बगैर विचार चेतना एवं व्यक्तित्व में इसका प्रभाव नहीं दिखता ।
शिक्षा का व्यक्ति के चेतना के विकास संबंधी प्रश्न से अभिन्न संबंध है । वर्तमान शिक्षा में आत्मा या आत्मिक ऊर्जा को पहचानने और विश्व ब्रम्हांड के साथ उसके संबंध को समझाने से संबंधित विषय के अभाव के कारण नई पीढ़ी दिग्भ्रमित हो रही है । आज हिंसात्मक प्रवृत्ति,हताशा,व्यर्थता बोध,अवसरवादिता जैसी आत्मा के स्तर की तमाम समस्याएं आत्मशक्ति के संबंध में व्यक्ति की अज्ञानता के कारण ही उसे नैतिक स्खलन की राह पर ले जा रही है । आत्मा की अवधारणा को विकृत करके अन्धविश्वास को बढ़ावा देने में फिल्मों या किताबों की डरावनी कहानियों ने भी बहुत बड़ी भूमिका निभाई है।
आज आत्मा की अवधारणा पर चर्चा केवल दर्शनशास्त्र में होती है । जीवन को दिशा देने की ताकत रखने वाली यह आत्म चेतना संबंधी अध्याय वर्तमान शिक्षा व्यवस्था में एक विषय विशेष का छोटा सा अंश है। जहाँ पूरा समाज नैतिकता के अभाव में बुरे असर से जर्जरित है, वहाँ इस समस्या से बाहर निकलने की कोशिशों को शुरू करने के लिए हथियार दर्शनशास्त्र में उपेक्षित पड़े हुए हैं । आत्मतत्व का अध्ययन और उसके जरिए अपने आत्म तत्व की प्रकृति की पहचान नई पीढ़ी की जीवन शैली और जीवन दृष्टि के विकास में सहायक बन सकती है । जीवन दृष्टि एक कम्पास की तरह उनके जीवन को दिशा देते हुए उसे आजीविका कमाने की ऐसी राह दिखा सकती है , जो समाज और संस्कृति की समृद्धि का भी आधार बन सके।
अंग्रेजी भाषा और संस्कृति को भारत में वरियता दिलाने के लिए मैकाले द्वारा भारत में चालू की गई शिक्षा व्यवस्था का प्रभाव आज भी बरक़रार है। इस बात से बहुत काम लोग वाकिफ है कि इस शिक्षा व्यवस्था को भारत में चालू करने के लिए लॉर्ड मैकाले ने क्या दलीलें दी थी। इस संदर्भ में लॉर्ड मैकाले द्वारा ब्रिटिश संसद में दिए गए वक्तव्य पर एक नजर डालना जरुरी है-
“मैंने भारत के एक छोर से दूसरे छोर तक की यात्रा की । मुझे एक भी भिखारी या चोर नहीं दिखा। मैंने उस देश में इतनी समृद्धि, इतने ऊँचे नैतिक मूल्य और इतने प्रतिभावान लोग देखे कि मुझे नहीं लगता कि हम इस देश की रीढ़ की हड्डी, इसकी आध्यात्मिक और सांस्कृतिक विरासत को तोड़े बगैर इस देश को जीत सकते हैं। इसलिए मेरा प्रस्ताव है कि हम उनके प्राचीन शिक्षा संस्कृति को अपदस्थ करके भारतीयों में यह सोच भर दें कि जो विदेशी है जो अंग्रेजी है वही अच्छा है । और यही उनके अपने पास जो है, उससे बेहतर है। इस तरह वे अपना आत्म सम्मान, अपनी संस्कृति को खो देंगे और हमारे इच्छा अनुरूप हम इस राष्ट्र पर शासन कर पाएँगे। ”
गौर करें कि सन 1835 से आज तक भारत की शिक्षा व्यवस्था एवं शिक्षण के विषयों और पद्धतियों में भले ही परिवर्तन आया हो लेकिन इसकी गहराई में आज भी लॉर्ड मैकाले द्वारा वर्णित मूल्य ही भरे हुए हैं । दिखावे से भरपूर अंग्रेजी संस्कृति शिक्षा प्रतिष्ठानों में जम कर बैठी हुई है। इस परिस्थिति को चुनौती देने के लिए आत्मतत्व से संबंधित विषय को विद्यालय स्तर से लेकर महाविद्यालय स्तर तक के पाठ्यक्रम में शामिल करना जरुरी है । सदियों से इस विषय से कट चुकी शिक्षा परम्परा को पुनः इससे जोड़ने के लिए खास पाठ्यक्रम की रचना करने में सक्षम विद्वानों और प्रभावशाली शिक्षकों की जरूरत है ।
वर्तमान शिक्षा व्यवस्था में नए पाठ्यक्रम में शामिल विषयों को अनावश्यक रूप से सरलीकृत कर देने की प्रवणता दिखाती है। सरलीकरण के लिए अगर विषय की धार को ही भोथरा कर देना पड़े और शिक्षकों के पढ़ाने की सुविधा के लिए तथा विद्यार्थियों को लिखित परीक्षा हेतु तैयार करने के लिए कान्टेंट को कैप्सूल में भर कर निर्जीव बना देना पड़े तो विषय को पढ़ाने का कोई मतलब नहीं रह जाता । जो सरलीकरण विषय को बोधगम्य बनाने के उद्देश्य से हो और जो विषय के धार की रक्षा कर सके, वही सरलीकरण स्वीकार्य हो सकता है। इस सरलीकरण का संबंध शिक्षण पद्धति की गुणवत्ता से है ।
विद्यालय स्तर से ऐसे पाठ्यक्रम को चालू करने के दौरान यदि अभिभावकों के लिए सार्वजनिक सेमिनारों का आयोजन हो और वहीं पाठ्यक्रम की पुस्तकें भी उपलब्ध हो पाएं, तो अभिभावकों में भी इस विषय के प्रति सचेतनता बढ़ पाएगी। पुस्तकों के अलावा डिजिटल माध्यमों के जरिए भी इस विषय की सामग्री का उपलब्ध होना जरुरी है। इस विषय की परीक्षा अगर मौखिक हो एवं खास दर्शकों की उपस्थिति में हो, साथ ही प्रस्तुति की रेकॉर्डिंग की भी व्यवस्था हो तो विषय को हल्के ढंग से पढ़ाने की प्रवृत्ति पर अंकुश लगाया जा सकता है । इस तरह विद्यालय स्तर से ही तैयार हो रहे विद्यार्थी स्नातकोत्तर स्तर तक आकर स्वयं सार्वजनिक सेमिनार आयोजित करने के काबिल बन जाएंगे । महाविद्यालय तथा विश्वविद्यालय के विद्यार्थी स्कूल के साथ नेटवर्क स्थापित करके विद्यालयों में भी आत्मतत्व विमर्श से संबंधित सेमिनार आयोजित कर सकते हैं। इस प्रयास से न सिर्फ समाज में प्रचलित अंधविश्वासों और दिग्भ्रमित करने वाले प्रवचनों को चुनौती दी जा सकेगी बल्कि आने वाले वर्षो में सचेतन नागरिकों की पीढ़ी भी तैयार हो पाएगी ।

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