एक अनोखे सफर की दास्तां / The Story of a Unique Journey

एक अनोखे सफर की दास्तां / The Story of a Unique Journey

एक अनोखे सफर की दास्तां / The Story of a Unique Journey

प्रकाश और ऊर्जा की अवधारणाएं मेरी कविताओं की किताब ’सृष्टि चक्र’ के लिखने के बाद से ही मन को जैसे रोज सृष्टि में रमने के लिए खींच कर ले जाती थीं। मेरे आसपास रहने वाले लोग इन अवधारणाओं को जड़ विज्ञान के नजरिए से देखते हैं। प्रकाश के साथ बहकर आने वाली ऊर्जा जीवन और सोच को भी बदल सकती है, इस वैज्ञानिक सत्य की बात कहना तो जैसे कोई पागलपन हो। मन ने लगभग मान लिया था कि इन अवधारणाओं की बात लोगों से करना अपनी ऊर्जा नष्ट करना ही है। जड़ विज्ञान की जड़ें विद्यालय स्तर से विश्वविद्यालय स्तर तक जमकर बैठी हैं। अध्यात्म का रिश्ता भी विज्ञान से कट गया है। पौराणिक कहानियों ने विज्ञान को किस्सागोई में ऐसा लपेट दिया है कि उनके भीतर से झांकता विज्ञान नज़र नहीं आता। हकीकत की इसी तस्वीर से मन में मायूसी के बादल छाए हुए थे। ऐसे में उर्मिला का फोन जैसे बादलों के बीच बिजली की चमक दिखा गया।
उर्मिला इटली के एक विश्वविद्यालय की प्राध्यापिका है। उससे दोस्ती का जरिया मेरी किताब ’सृष्टि चक्र’ ही है। भारत से दूर इटली में बैठकर ई-मेल पर देवनागरी लिपि में लिखा संदेश देखकर ही उसने जवाबी संदेश भेजा था। खुश रहना और खुशी बिखेरना ही उसके जीवन का महामंत्र है। बंगाल के लोकशिल्प ’पटचित्र’ के लिए प्रेम उसके रोम-रोम में बहता है। इस प्रेम में इतना प्रकाश और इतनी ऊर्जा है कि उसे इटली और भारत की भौगोलिक दूरियां भी भारत आने से नहीं रोक नहीं पाती। पटचित्रकारों के साथ रहना, समय बिताना उनके जीवन को करीब से देखना, उनके कला की धड़कन को महसूस करना उसका जुनून है।
उस रोज उर्मिला ने मानो फोन पर प्रकाश और ऊर्जा की बात खुलकर कहने का फरमान दिया था। इटली के यूलुम विश्वविद्यालय के प्राध्यापक जुसेप्पे करियरी ने उर्मिला से ’कविता में प्रकाश’ विषय पर एक डाक्यूमेंटरी फिल्म के लिए भारत की किसी लेखिका का नाम मांगा था। इस सवाल के जवाब में उर्मिला के ज़ेहन में मेरा नाम आना जैसे मन के किसी बन्द कमरे की खिड़की को प्रकाश से भरने के लिए खोल गया।
जुसेप्पे प्राध्यापक होने के साथ-साथ फिल्म निर्माता भी था। ’डस्ट’ , ’एल्फाबेट्स ऑफ रिवर’ जैसे फिल्मों के निर्माता जुसेप्पे ने भारत के प्रति अपने आकर्षण का भाव व्यक्त करते हुए मुझे यह लिख भेजा था कि ’कविता में प्रकाश’ का विषय उसके लिए बेहद खास और मोहक है। यह कठिन तो जरूर है लेकिन भारत में ही इस विषय पर खास विचार विमर्श हो सकता है।
ये संयोग ही था कि जिस वक्त जुसेप्पे का संदेश मुझे मिला मैं प्रकाश से संबंधित भारतीय मनीषियों के विचारों पर आधारित एक किताब पढ़ रही थी। ऐसे मौके पर यह संदेश आना मानो कुदरत की ही कोई कविता हो। बहुत दूर किसी भूखंड पर होते हुए भी कुदरत की ऊर्जा कहीं हमारे सोच और विचारों को जोड़ रही थी। यह सृष्टि का ही अनोखा खेल था कि मैंने प्रकाश पर अपने विचारों को उसके सवालों के हिसाब से लिखना शुरू कर दिया। और फिर वाट्सऐप पर ही लम्बे सवाल जवाब का सिलसिला शुरू हो गया। फरवरी में कोलकाता आकर इस विषय पर मेरे साक्षात्कार की वीडियो रिकार्डिंग करने की बात पर आकर यह सिलसिला खत्म हुआ। उस रोज प्रकाश और ऊर्जा के मेरे मनपसंद विषय पर बात कर पाने के कारण मन पर खुशी का आलम छाया हुआ था। इस बात को खुल कर न कह पाने की मायूसी मानो गलकर कहीं बह गई थी और मन की गहराइयों में कहीं छिपा श्वेत धवल हिमालय का शिखर मानो मानस पटल पर उभरकर सूरज की रोशनी के स्पर्श से सुनहरी छटा बिखेरने के लिए तैयार बैठा था।
जुसेप्पे के इटली से भारत पहुँचने का पल हाज़िर था। उसके साथ उसकी छात्रा नोएमी भी आ रही थी। ’कविता में प्रकाश’ फिल्म विद्यार्थियों की परियोजना का अंग थी। नोएमी की भारत में यह पहली यात्रा थी। जुसेप्पे के बरसों पुराने दोस्त तपन के घर रुकने की योजना थी। दीपांकर का नाम भी बरसों पुराने दोस्तों की सूची में शामिल था। एफ.टी.आई. पूने से जुड़ा फिल्म निर्माता दीपांकर कोलकाता के इस सफर में जुसेप्पे और नोएमी का साथी था। रूपकला अकादमी से जुड़े तपन और दीपांकर अपने काम के सिलसिले में अन्य देशों की यात्रा कर चुके थे। जुसेप्पे और नोएमी से मिलने पहले दिन तपन के घर पहुंचते ही मैंने इन्हीं यात्राओं की बातों का कारवां पाया।
पहले दिन ही शाम के चार बजे हमें साक्षात्कार की शूटिंग के लिए निकलना था। मेरी एक आदत की बात मैं पहले ही दीपांकर और जुसेप्पे को बता चुकी थी। यह आदत कैमरा से दूर भागने की आदत है। प्रकाश में न आने की आदत है। यहाँ तक कि पारिवारिक तस्वीरों में भी इसी आदत की वजह से मेरा मानोनिशान कम ही मिलता है। इस आदत की जड़ में मेरी यह सोच है कि सिर्फ प्रकृति की तस्वीर ही एक साथ बहुत कुछ कह सकती है। लोगों की तस्वीरें तो दिखावे का साधन बनती है या फिर नास्टाल्जिक होने का कारण। तस्वीर खिचवाने के लिए खड़े होने में एक कृत्रिमता है। इस कृत्रिमता से दूर भागने की मेरी पुरानी आदत थी। आत्मा का प्रकाश असली प्रकाश है जो शरीर से फूटता है। कृत्रिम प्रकाश से कैमरे के सहारे तस्वीर खिचवाने की प्रक्रिया में आत्मा के प्रकाश पर दिखावेपन का अंधेरा हावी हो जाता है। कैमरे से दूर भागने की मेरी कोशिश दरअसल इस अंधेरे से दूर भागने की कोशिश ही थी। साक्षात्कार को कैमरे में कैद करने के प्रति मैंने अपनी उदासीनता पहले ही जुसेप्पे से व्यक्त की थी। लेकिन भारतीय संस्कृति और काव्य में प्रकाश के स्वरूप को इटली वासियों के सामने लाने की धुन उस पर सवार थी। उसके कार्य के प्रति श्रद्धाभाव, भारतीय संस्कृति में व्यक्त प्रकाश के प्रति नजरिये को विश्व के सामने लाने के जुनून और मेरे काव्य में प्रकाश की स्थिति को समझने और समझाने की जिद के सामने मुझे हार मानना ही पड़ा।
दो कैमरे, दो मनोपौड और तस्वीरें खींचने के लिए अन्य छोटे-छोटे सामान लेकर हम शूटिंग के लिए उपयुक्त जगह की तलाश में गाँव के रास्ते की ओर चल पड़े थे। रवीन्द्र भारती विश्वविद्यालय में शोध कर रहे अंकुश के साथ जुसेप्पे, नोएमी और मैं गाड़ी में थे। और दीपांकर आगे बाइक से रास्ता दिखाता हुआ चल रहा था। पक्के सड़क पर गाड़ी रोककर हम खेत की मेड़ों से होते हुए दूर हरे खेतों की ओर बढ़ रहे थे। तालाब में गले तक डूबकर खड़ी गायें, गाँव के कच्चे मकान, मिट्टी के कच्चे रास्ते, घरों के आसपास घूमते मुर्गियों और बकरियों को पार कर हम ऐसी जगह पर पहुँचे जहाँ से दूर तक हरियाली ही हरियाली फैली दिखती है। जुसेप्पे, दीपांकर और नोएमी की आँखें इस साक्षात्कार के लिए एक ऐसा ही जमीन का टुकड़ा खोज रही थीं जहाँ से दूर तक हरियाली ही हरियाली दिखाई दे। गाँव के लोग हमें एकटक देख रहे थे। अब मेरे सामने साक्षात्कार का वह पल हाजिर था। पहली बार, मैंने महसूस किया कि कृत्रिम और प्राकृतिक वातावरण में क्या अंतर होता है? कक्षा में बोलने और निर्जीव कैमरे के सामने बोलने में कितना भावात्मक अन्तर है। मेरे विचार निश्चित रूप से साहित्य के शिक्षक के विचारों की तरह ही तत्वपरक थे। जुसेप्पे ने इनमें अहसासों का रंग भरने की अपील की। क्योंकि इस साक्षात्कार को देखने वाले दिल से सुनने वाले लोग हैं। इसलिए बातों में कशिश होना जरूरी है। इस अपील के साथ ही मानो मेरी दुनिया इधर की उधर हो गई। अहसासों को पकड़ने की बात सुनकर होठों पर मानों ताला लग गया। जुसेप्पे लगातार अपनी बात कहने की कोशिश करता रहा लेकिन मेरे होश किसी दूसरी दुनिया का सफर तय कर रहे थे। मन हरियाली में डूबना चाहता था, डूबते सूरज को एकटक देखना चाहता था। लेकिन साक्षात्कार के प्रश्नों से मन को फुरसत ही नहीं मिल पा रही थी। इसी उधेड़बुन में सूरज डूबता गया। यह फाइनल शूटिंग नहीं बल्कि ट्रायल था। जुसेप्पे जानता था कि अगली कोशिश ही मुकम्मल कोशिश होगी । यह पहली कोशिश कार्य की प्रकृति का अंदाजा लगाने के लिए थी। यह बात सुनकर मन को कुछ राहत मिली। जुसेप्पे मन की गहराइयों में डूबकर अहसासों के मोती खोजने की राहें बताने में जुट गया।
जुसेप्पे का मानना था कि हर कवि का काव्य मानों जमीन का एक ऐसा टुकड़ा है जहाँ नदी, पहाड़, झरना कुछ भी हो सकता है जो कवि को लिखने की प्रेरणा देता है। उसने मुझसे मेरी कविता का ’लैंडस्केप’ क्या है? यह सवाल पूछा। मेरी कविता की दुनिया अमूर्त भावों की दुनिया थी। यहाँ प्रकाश आत्मा और ज्ञान स्वरूप था। इस सवाल का कोई जवाब मेरे पास नहीं था। लेकिन जुसेप्पे को कवि के भावों को दर्शकों के सामने मूर्त रूप में दिखना था। इसके लिए जरूरी था कि मेरे विचार और भावों से चित्र उभरकर सामने आए। लेकिन अमूर्त दुनिया में भला चित्र मैं कैसे खोजती? जुसेप्पे लगातार बोलता रहा कि चित्र तो जरूर है अपने भीतर खोजो तो जरूर मिलेगा। वह लगातार अपने भीतर उस चित्र को खोजने की अपील करता रहा।
अंधेरा होने को था। साक्षात्कार के इस अनुभव से मन पर संदेह के बादल छाए हुए थे। तय हुआ दीपांकर के घर पहुँचकर अगले छह दिनों की योजना तय होगी। और वहीं जुसेप्पे मेरी सोच को शूटिंग की जरूरतों के अनुरूप ढालने के लिए सुझाव में देगा। लेकिन एक बात हम दोनों के बीच स्पष्ट थी कि ऐसा कुछ मुझे नहीं कहना पड़ेगा जो मेरे अनुभव का अंग नहीं है। निर्देशक के रूप में जुसेप्पे की काबिलियत का अहसास मुझे तब हुआ जब मेरे मन में एकाएक मेरी कविता का लैंडस्केप उभरकर सामने आया। बर्फ से ढ़के पर्वत का सफेद शिखर जिसे सूरज की किरणों ने सुनहरे रंग में डुबो दिया है। मैंने महसूस किया कि जुसेप्पे के शब्दों ने ही तराश कर अमूर्त की भीड़ में दबे इस चित्र को उभारा है। फिर मुझे सृष्टि चक्र की हर कविता में इस चित्र का प्रतिफलन दिखने लगा। जुसेप्पे को शब्दों को पकड़कर उनसे चित्र खींचने की आदत है। इसलिए चित्रात्मक शब्दों को वह तुरंत पकड़ता है। और मेरी आँखें दृश्य जगत में दाखिल होकर अमूर्त की गलियों से होते हुए शब्द पकड़ने के लिए दौड़ती हैं। दोनों के सोच की इस विरोधी गति के चलते जो तनाव पैदा हुआ था वह मानस पटल पर श्वेत धवल पर्वत के चित्र के उभर कर सामने आते ही दूर हो गया।
दीपांकर का घर मानो अपनेपन में डूबा एक साम्राज्य था। जुसेप्पे और दीपांकर की दस साल पुरानी दोस्ती में भी इसी अपनेपन की झलक थी। दस साल पहले रूपकला अकादमी में इनकी दोस्ती का बीज पड़ा था। फिर दीपांकर इटली के नापोली में जुसेप्पे के घर रहकर आया था। उसी ने बताया कि जुसेप्पे के बरामदे से विसुवियस पहाड़ दिखता है। आधुनिकता के कृत्रिम छाप से दूर सीधा साधारण-सा दीपांकर का घर सरलता के साथ रमने का न्यौता देता है। चारपाई पर वृद्ध दादी हमारे पहुँचने के साथ ही तकिये से सर उठाकर दरवाजे की ओर देखने लगी। माँ ने रसोई से निकलकर अपनेपन के साथ घर में बैठाया। पिताजी और माँ दोनों ही हमारी जरूरत के हिसाब से सामान जुटाने में लग गए। भारतीय संस्कृति के अपनेपन के भाव की छाप पूरे परिवार में स्पष्ट थी।
जुसेप्पे बंगाल में कुम्हारों के इलाके कुमारटुली में मूर्तियों से भरा स्टूडियो देखना चाहता था। लेकिन उसे मालूम था फरवरी के बाद ऐसा नजारा देख पाना मुश्किल है। इस बात को तो उसने मान लिया था लेकिन किसी एक मूर्ति के बनने से लेकर पंडाल में आने, पूजा करके विसर्जित होने तक वह शूटिंग करने की हसरत को पूरा करने की बात पर अड़ा हुआ था। ऐसे में दीपांकर के घर के लोगों ने प्रेम, अपनेपन और सहयोग का एक नया दृष्टांत सामने रखा। एक कुम्हार से बातचीत करके मूर्ति बनाने का ऑर्डर दिया गया। पंडाल सजाने, पूजा करवाने की तैयारियों में दीपांकर का घर क्या मुहल्ला ही जुट गया। दीपांकर जुसेप्पे की चाहतों को समझकर उसे पूरा करने की कोशिश में लगातार जुटा हुआ था।वह इस कार्य में आनंद महसूस कर रहा था। और जुसेप्पे का सृजनात्मक मन कब किस चीज की मांग करे इसका पता तो स्वयं उसे भी नहीं था लेकिन दीपांकर की निगाहें उसमें एक निर्माता की तड़प को अच्छी तरह महसूस कर पा रही थीं। स्वयं भी फिल्म निर्माता होने के कारण जुसेप्पे की चाहत कहीं न कहीं उसकी भी चाहत का अंग बन जा रही थी। और वह हर हाल में उस चाहत को पूरा करने में रमता जा रहा था। सिर्फ चाहत ही नहीं उसके कई सवालों के जवाब भी वह इस तरह दे रहा था कि जुसेप्पे भारतीय संस्कृति की नब्ज़ को पकड़ सके। जैसे, ये कलाकार इतनी खूबसूरत मूर्तियाँ बनाते हैं लेकिन इसे पानी में क्यों फेंक दिया जाता है? अगर इन्हें नष्ट ही करना है तो बनवाते क्यों हैं? विसर्जन क्यों किया जाता है? तमाम सवाल। ऐसे सवाल और अन्य कई सवालों के जवाब को दिल से महसूस करवाने के लिए जुसेप्पे और नोएमी के साथ दीपांकर और अंकुश दो दिनों तक सुबह से शाम तक कुमारटूली में घूमते रहे। कलाकारों की जिंदगी को वे करीब से देखना और समझना चाहते थे। उनकी यह कोशिश उन्हें महिला कलाकार चाएना पाल के दरवाजे तक ले गई। पिता की मौत के बाद अपनी ही चेष्टाओं से मूर्तियाँ बनाना सीखने वाली इस स्त्री की कहानी संघर्ष की जीती जागती कहानी है। नपुंसकों के लिए अर्धनारीश्वर की दुर्गा मूर्ति बनाने के लिए कठिन संघर्ष करके आज वह कुमारटूली में बेहद चर्चित हैं । चाएना पाल की कहानी में स्त्री संघर्ष की बात ने जुसेप्पे को खास तौर पर आकर्षित किया था।
भारत आने से पहले ही जुसेप्पे ने यहाँ के मंदिर के शांत वातावरण को महसूस करने के प्रति अपनी इच्छा जाहिर की थी। दक्षिणेश्वर और बेलूरमठ में मंदिरों में होने वाली भीड़ और वहाँ कैमरा लेकर जाने की पाबंदी के चलते ये मंदिर सूची से बाहर निकल गए थे। अचानक मन में पुरानी कुछ यादें ताजा हो उठी। बरसों पहले मन उदास होने पर मैं गंगा के किनारे बसे एक शांत मंदिर, जहाँ लोगों का अक्सर आना जाना नहीं होता, जाया करती थी। मन में यह बात आते ही अंकुश के साथ उस मंदिर की ओर निकल पड़ी। मंदिर का वातावरण आज भी उतना ही शांत था। मंदिर में प्रवेश करने से पहले मिट्टी का विशाल प्रांगण, प्रांगण में लगे घने वृक्ष और उसके किनारे गंगा नदी का बहना, कोयल की आवाज सुनते हुए मंदिर के शांत परिसर में दाखिल होना एक सुंदर अनुभव था। फिर हमने गंगा के किनारे बसे कई मंदिरों में से तीन शान्त प्राचीन मंदिरों को चुनकर उनकी तस्वीरें जुसेप्पे को भेजी। ये मंदिर उसे बेहद पसंद आए थे। दीपांकर, नोएमी, जुसेप्पे और अंकुश के साथ गंगा के किनारे बसे इन मंदिरों की सैर करते हुए मानो भारतीय संस्कृति की खुशबू, प्राचीनता की गंध, गंगा नदी की शीतलता और प्रकृति का सौंदर्य मन की गहराइयों में रिस रहा था। मंदिर की पूजा, आरती सब कुछ जुसेप्पे और नोएमी कैमरा में भरकर इटली ले जाना चाहते थे। क्योंकि उनका सोचना था कि इन अनुष्ठानों में भारतीय संस्कृति का प्रकाश बसता है।
मंदिरों के बाद अब कलाकार के कार्यशाला में जाने की बारी थी। वह कलाकार जो उस खास मूर्ति को गढ़ रहा था जिसकी पूजा से लेकर विसर्जन तक के कार्यक्रम को जुसेप्पे कैमरा में कैद करना चाहता था। कलाकार श्यामल की कार्यशाला मूर्तियों के ढांचों से भरी थी। बाँस, लकड़ी, पुआल से बने मूर्तियों के ढांचे, कच्चा मकान और मिट्टी की फर्श में एक अजीब-सी गँवई गंध थी। भरे पूरे शहर में यह कार्यशाला मुझे गाँव के एक टुकड़े-सा दिख रहा था। बांस के ढांचे से लेकर पुआल पर मिट्टी चढ़ाने और मूर्ति को रंगने से लेकर पंडाल तक ले जाने का एक भी पल जुसेप्पे छोड़ना नहीं चाहता था। क्योंकि उसके लिए इन्हीं चित्रों में भारतीय संस्कृति की वह गंध थी जिसे इटली तक ले जाना जरूरी था । जुसेप्पे बांस पर कील ठोकते कलाकार के हाथ, पुआल पर मिट्टी लीपते हाथ, तन के ढांचे पर सिर बैठाते हाथ की तस्वीरें लेने में लगा था। उन हाथों की तस्वीरें जो तिल तिल कर उस देवी को रच रहे थे, जो पूजा स्थल में विराजेगी और भक्तों की आस्था का आधार बनेगी। सिर्फ कलाकार के हाथ ही नहीं मूर्ति गढ़ते हुए उसके अनुभव को भी जुसेप्पे कैमरे में कैद करना चाहता था। कलाकार से सवालों का जवाब पाकर वह संतुष्ट हुआ। फिर कलाकार के साथ मिलकर मूर्ति को रंगने का अनुभव, काम के बहाने लोगों से घुलने मिलने का अनुभव जुसेप्पे और नोएमी को भारतीय संस्कृति में मानों डुबो-सा रहा था।
देखते ही देखते जुसेप्पे और नोएमी के इटली वापस लौटने का दिन आ गया। सुबह फिर मेरे साक्षात्कार को कैमरे में बंद करने का पल हाजिर था। हम फिर किसी खूबसूरत प्राकृतिक छटा बिखेरते स्थल की खोज में गाँव की ओर निकल पड़े थे। इन छह दिनों में दीपांकर, जुसेप्पे, नोएमी हर रोज रात को सिर्फ तीन या चार घंटे ही सो पाए थे। खाने-पीने के समय का भी व्यस्तता के बीच ध्यान रखना मुश्किल था। शूटिंग के तनाव को मेरे मन ने उस दिन नोएमी को देखकर पहली बार महसूस किया जब साक्षात्कार के लिए जगह खोजते हुए वह तनाव और थकान से रो पड़ी थी। साक्षात्कार के बाद विसर्जन और फिर तपन के घर जाकर हवाई अड्डे के लिए निकलने की तैयारी सिर पर सवार थी। नोएमी ने अपने आप को समेटा और साक्षात्कार में भारतीय संस्कृति में प्रकाश का महत्व, मेरी कविता की भाव भूमि, उसमें प्रकाश की स्थिति, प्रकाश और अंधेरे के बीच का रिश्ता और कविता लिखने की प्रेरणा से संबंधित तमाम सवालों के मेरे द्वारा दिये गए जवाबों को कैमरे में कैद किया। उस रोज पहली बार मैंने फिल्म बनाने वालों के तनाव को करीब से देखा था। नोएमी के आंसू जैसे मन में भीतर तक उतर गए थे। लिखने के लिए वक्त की नब्ज को पकड़कर महसूस करते हुए चलने की जरूरत पड़ती है। प्रकृति के साये में कभी घंटों बीत जाते हैं। उन पलों में प्राकृतिक ऊर्जा कब चुपके से मन में रिसकर मुझे तरोताजा कर जाती है पता ही नहीं चलता। आज मैंने जब नोएमी दीपांकर, जुसेप्पे की तेज रफ्तार से चलती जिंदगी को देखा तब महसूस किया कि प्रकृति के साये में चुपचाप बैठकर समय बिता पाना मानो सृष्टि की नेमत पाने के बराबर है।
साक्षात्कार के बाद हम दीपांकर के घर लक्ष्मी देवी के विसर्जन पर्व के लिए चल पड़े थे। पिछले दिन रात को धूमधाम से पूजा सम्पन्न हुई थी। पूजा की जीवंत तस्वीरों को कैमरे में कैद कर ले जाने की जुसेप्पे की हसरत पूरी हुई थी। सिंदूर का खेल, ढाक की आवाज के साथ लक्ष्मी की प्रतिमा को तालाब के किनारे ले जाया गया। देवी की मूर्ति के आखिरी फूल के पानी में डूबने तक दीपांकर ने पानी पर ही कैमरे को टिकाकर रखा। उस दिन मैंने महसूस किया कि जहाँ मेरा मन हर पल की तस्वीर मन में ही आंक रहा था, वहीं जुसेप्पे, दीपांकर और नोएमी हर क्षण के चित्र को कैमरे में कैद कर रहे थे। फर्क सिर्फ इतना था कि मेरी तस्वीरें आँखेँ बंद करके सिर्फ मैं ही देख सकती थी और उनकी तस्वीरें लोग आँखें खोलकर किसी भी वक्त देख सकते थे। वक्त कैसे बीत गया पता ही नहीं चला। जुसेप्पे और नोएमी के लौटने का वक्त करीब आ गया था। मैं मन ही मन इन खूबसूरत पलों का साक्षी बनाने के लिए सृष्टि की अदृश्य ऊर्जा का शुक्रिया अदा कर रही थी।

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