एक अप्रत्याशित सफर / An Unexpected Journey

एक अप्रत्याशित सफर / An Unexpected Journey

एक अप्रत्याशित सफर / An Unexpected Journey

कंचनजंघा की सफेद चोटियों को सूरज की किरणों के स्पर्श से सुनहरी आभा बिखेरते देखने की हसरत जब परवान चढ़ी हुई थी, तब अचानक रावंगला और तिनचुले जाने की योजना के रद्द हो जाने की बात ने मानो मायूसी के सागर में मुझे डुबो दिया। हाल ही में केन्द्रीय हिंदी निदेशालय में एक काम के सिलसिले में शंकरी दी से मुलाकात हुई थी। आध्यात्मिकता के रंग में रंगकर कभी घने जंगल तो कभी पहाड़ी खामोशी के बीच वक्त बिताने अकेले ही निकल पड़ना उन्हें अच्छा लगता था। उनके विविध अनुभवों को जानना भी मन को एक अलग-सी खुशी में सराबोर कर देता था। न जाने क्यों मुझे लगा कि मैं इस घड़ी में पल भर शंकरी दी से बात करूँ। हम दोनों की मानसरोवर जाने की इच्छा हम पहली मुलाकात में ही एक-दूसरे से व्यक्त कर चुके थे। इसी इच्छा की बात जब फिर से उठी तब शंकरी दी ने बताया कि वह दस दिन बाद सिंगरौली के लिए रवाना हो रही हैं। सिंगरौली में हरियाली के बीच उनके दीक्षा गुरु का आश्रम है। बरसों-पहले वहां जंगल ही था। जब शंकरी दी ने इन मौनी बाबा के डेरे को खोज निकाला था। जरिया था स्वप्न दर्शन। यह बात मुझे रोमांचक लगी थी। सिंगरौली का नाम सुनते ही निर्मल वर्मा का यात्रा वृत्तांत ‘सिंगरौली जहाँ से वापसी संभव नहीं’ स्मृति पटल पर उभर आया था। यात्रा वृत्तांत में लिखी वहाँ के आम के पेड़ों के मूक विद्रोह की बात भी शंकरी दी के इस स्वप्न दर्शन जैसा ही रोमांचक थी। मन में सिंगरौली जाने की इच्छा तुरंत पैदा हो गई। तुरंत आई.आर.सी.टी.सी. का वेब साइट खोला और यह देखकर हैरान रह गई कि शंकरी दी की योजना के अनुसार मुझे सिंगरौली जाने के लिए जिस दिन गाड़ी पकड़नी होगी और जिस दिन वहाँ से लौटने के लिए रवाना होना होगा, दोनों दिन टिकट उपलब्ध थे। लेकिन उसके आगे या फिर उसके बाद कई दिनों तक कोई टिकट उपलब्ध नहीं था। और टिकट भी दोनों दिनों के लिए सिर्फ दो-दो ही थे। मानो मेरे और मेरी बेटी राशी के लिए किसी ने बचाकर रखी हों। अब शंकरी दी की बनी बनाई योजना में हमारा नाम भी शामिल हो गया। रावंगला और तिनचुले न जा पाने का दर्द जैसे कहीं पिघलकर बह गया।
रावंगला और तिनचुले का सफर रद्द होने के पीछे भी एक मजेदार कारण था। वह कारण तब मजेदार नहीं था जब वह घटना घटी थी। शांतनु को मैंने मजाक में मोबाइल में एक संदेश भेजा था। जिसे उन्होंने गलत समझा और तुरंत रावंगला का सफर रद्द करने का निर्णय ले लिया। होटल की बुकिंग रद्द करने से पहले ही मुझसे कह दिया कि यह बात पक्की है कि अब वहाँ जाना न होगा। हमारे साथ उनके दोस्त प्रणव का परिवार भी वहां जा रहा था। मुझसे कहा गया कि उनसे भी सफर की योजना रद्द होने की बात हो चुकी है। ऐसे हालात में शंकरी दी ने जब साथ चलने की बात कही तो तुरंत दिल ने स्वीकार कर लिया और आधे घंटे में ऑनलाइन टिकट भी ले लिया गया। टिकट काटवाने में शांतनु ने ही मदद की। मुझे एक बार भी यह नहीं कहा कि रावंगला और तिनचुले की बुकिंग रद्द नहीं हुई थी। मुझे पता तब चला जब प्रणव की पत्नी मैरी ने मेरे जाने की बात सुनकर यह कहा कि शांतनु से ऐसी बात तो नहीं हुई थी। मैरी ने सिंगरौली जाने की योजना रद्द करने की अपील की। लेकिन तब तक सिंगरौली के मौनी बाबा से मिलने की इच्छा मुझे सराबोर कर चुकी थी। बेटी भी सिंगरौली ही जाना चाहती थी। मैं कभी इस तरह अकेले अधिक दिनों के लिए घूमने नहीं गई थी। और हैरत की बात तो यह थी कि इस तरह अकेले जाने की बात से मन में कोई घबराहट भी नहीं थी। शांतनु और मेरे माता-पिता ये सोचकर चिंतित थे कि मैं इस तरह बेटी को साथ लेकर ऐसे किसी दीदी के साथ, जिनसे मैं बस एक महीने पहले ही मिली हूँ, कैसे जा सकती हूँ?
शांतनु ने कहा था कि वह रावंगला और तिनचुले न जाकर अकेले ही जमुनादिघि जाएंगे। मेरे मन में उस वक्त सिर्फ कंचनजंघा न देख पाने का दर्द जमा था। किसी के लिए कोई क्रोध या आक्रोश नहीं था। और न ही मैं किसी को कुछ दिखाने या साबित करने की मानसिक प्रक्रिया से गुजर रही थी। मैं तो बस अपना दुख हल्का करना चाहती थी। ऐसे में शंकरी दी से बात करने की घटना ने जैसे जिन्दगी को एक नए घाट पर उतार दिया।
मौनी बाबा शंकरी दी के दीक्षा गुरु थे। सन्यास लेने से पहले वे वन दफ्तर के अफसर थे। लेकिन मन सन्यास की ओर ही खींचता था। बरसों पहले ही अपना भोजन स्वयं पकाने की आदत डाल चुके थे। और फिर एक दिन अचानक संन्यास ने उन्हें अपनी ओर खींच लिया। बरसों उनके साथियों ने उन्हें बहुत ढूँढ़ा। लेकिन वे कहीं नहीं मिले। फिर एक दिन अचानक झुरई नाला जगह पर, जहाँ कभी जंगल हुआ करता था, आकर रहने लगे। यहीं उनको सिद्धि मिली। शिवभक्त बाबा कुछ नहीं खाते। और न ही पूजा पाठ करते हैं। और न ही कुछ बोलते हैं. सवाल पूछो तो जवाब लिखकर देते हैं। स्वप्न दर्शन से शंकरी दी जब वहाँ पहुँची और उनसे दीक्षा देने का आग्रह किया तब उन्होंने लिखकर बताया कि अभी समय नहीं हुआ है। इस तरह तीन बार लौटाने के बाद आखिरकार गुरुपूर्णिमा के दिन अचानक ही उन्हें बीज मंत्र दिया। शंकरी दी ने बताया कि दीक्षा पाने के आखिरी कल तक पता नहीं होता कि दीक्षा मिलेगी या नहीं। और यहाँ कोलकाता में तो मैंने गुरुओं द्वारा आलीशान ढंग से अनुष्ठानों के जरिए दीक्षा देने की बात सुनी थी। जिसमें मेरी कोई रुचि नहीं थी। आध्यात्मिक मानसिकता के लोगों से मैंने सुना था कि दीक्षा गुरु और दीक्षा का दिन और क्षण हम तय नहीं कर सकते। यह प्रकृति तय करती है। वैज्ञानिक भाषा में कहें तो यह विद्युत चुंबकीय शक्तियों का खेल है। प्रकृति में मौजूद यह शक्तियाँ हमारे शरीर से भाव और विचारों के अनुरूप निकलने वाली शक्तियों से हर पल टकराती हैं और नई हकीकत रचती हैं। आज विद्यालय और महाविद्यालयों में पढ़ाया जाने वाला विज्ञान वस्तुवादी विज्ञान है। यह विज्ञान आत्मतत्व में छिपे वैज्ञानिक सत्य को तवज्जो नहीं देता। ऊर्जा की परिभाषा भी यहाँ वस्तु पर प्रयोग करके निरीक्षण से प्राप्त निष्कर्षों के आधार पर गढ़ी गई है। विचारों में भी विद्युतचुम्बकीय किरणें हैं और ऊर्जा के अनगिनत रूप जो अभी आविष्कृत ही नहीं हुए हैं इनके बारे में बात करना तो वस्तुवादी वैज्ञानिकों लिए ख्वाबी पुलाव पकाने के बराबर है। लेकिन किर्लियन फोटो, जी.डी.वी कैमरा ऐसे हकीकत को आज सामने ला चुके हैं। वस्तुवादी वैज्ञानिक है कि अपना सिंहासन छिन जाने के डर से इस हकीकत को मानने से साफ इन्कार करते हैं। क्वांटम विज्ञान भी इस बात को सामने ला चुका है कि शरीर से निकलने वाली विद्युत चुम्बकीय किरणें क्वांटम कणों और लहरों के रूप में होती हैं। इनकी गति सूर्य के प्रकाश से ज्यादा है। तभी हमारी आँखों के पकड़ में नहीं आतीं। इस विज्ञान की चर्चा प्राचीन भारत में हुआ करती थी। सूर्य विज्ञान इसकी खास शाखा थी। प्राचीन समाज में जो सूर्य को पूजने की प्रथा मिलती है उसकी गहराई में वैविध्यपूर्ण कारण है। जो कारण हमें साफ दिखाई देते हैं हम बस उन्हें ही मानते हैं बाकि कारण तो वक्त के साथ वह गए हैं। सूर्य के साथ शिव का गहरा रिश्ता है। योगी जो पूजा-पाठ में कम और ध्यान में ज्यादा लीन रहते हैं, वे सृष्टि के वैज्ञानिक सत्य से वाकिफ हैं। लोगों के सामने आना उन्हें स्वीकार नहीं। यहाँ तक कि शंकरी दी के अनुभव को अगर सांझा करू तो यह भी एक अद्भुत सत्य है कि मौनी बाबा के आश्रम में उनसे पहले से इजाजत लिए बगैर आप अगर रहना चाहें तो नहीं रह पाएँगे। वे तो कुछ कहते नहीं हैं लेकिन जैसे शाम होने लगेगी आपको स्वयं ही भीतर से महसूस होने लगेगा कि अब चलना होगा। यही शायद मौन की भाषा है। मौनी बाबा के इस आश्रम में अब उनके पुराने साथी जिन्होंने उन्हें बरसों ढूँढ़ा था आने लगे थे। शंकरी दी से पता चला कि बाबा साल में सिर्फ चार ही दिन दीक्षा देते हैं। वह भी अगर उन्हें महसूस हो तो, अन्यथा नहीं। किस्मत से हम जिस दिन जा रहे थे उस दिन उन्हें सिद्धि हासिल हुई थी। वह दीक्षा देने का दिन था। और उनका यह स्पष्ट मत था कि उनका बीज मंत्र समाज कल्याण का मंत्र है। इसे मन ही मन बोलने के लिए किसी नियम का पालन करने की जरूरत नहीं। यहाँ तक कि नहा धोकर बैठने की बाध्यता भी नहीं है। इसे मन में कहीं भी और कभी भी कहा जा सकता है। मेरे ध्यान कक्ष में मैं एक कांच का पात्र रखती हूँ। जिसमें अलग-अलग धर्मों के पूजा-स्थलों से लाए गए फूल रखे हुए हैं। प्रार्थना के बाद लाए गए इन फूलों में मेरी विश्व मंगल की इच्छाएँ विराजती हैं, इसी एहसास के साथ मैं रोज ध्यान कक्ष में ध्यान करती हूँ। मौनी बाबा की समाज कल्याण वाली बात मेरे विश्व मंगल के भाव से कहीं मिल जा रही थी। इसलिए उनसे दीक्षा पाने की इच्छा मन में पंख फड़फड़ाने लगी। लेकिन मेरी दीक्षा से संबंधित प्रकृति की इच्छा को जानना इस वक्त संभव नहीं था। इसलिए मेरे पास प्रार्थना के अलावा कोई रास्ता न था।
सिंगरौली के लिए हावड़ा से यात्रा शुरू हुई। पहली बार अकेले बेटी को लेकर सफर कर रही थी। किस्मत से ‘शक्तिपुंज एक्सप्रेस’ में हमारी बुकिंग एक ऐसे कमरे में थी जो दो सीटों का केबिन था। सामान पर नजर रखने की जिम्मेदारी घट गई और एटेंडेंट की वजह से जरूरत के सामान के लिए चिंतित भी नहीं होना पड़ा। इस सफर में पहली बार बेटी के साथ दोस्ताना रिश्ते को गहराई से महसूस किया। कॉलेज, घर और दूसरे कामकाजों के बीच मानो यह दोस्ताना रिश्ता कहीं छूट-सा गया था।
हमारे सुबह सात बजे तक सिंगरौली पहुँचने की बात थी। जब नींद खुली तब पाँच बज चुके थे। गाड़ी चोपन स्टेशन पार कर रही थी। सूरज की किरणों ने अभी तक यहाँ की धरती को स्पर्श नहीं किया था। जैसे-जैसे उजाला हुआ वैसे-वैसे इस जगह का अनोखा प्राकृतिक सौंदर्य निखर कर सामने आने लगा। दूर दिखाई देने वाली विन्ध्याचल पर्वत की शृंखला, ऊंची नीची जमीन, बीच की समतल जमीन पर धान की खेती, बीच-बीच में खड़े पलाश के फूलों से लदे वृक्ष, महुआ, सहगन, सिमूल के वृक्ष दिख रहे थे। उनके बीच से निकला कच्ची मिट्टी का रास्ता, ताश के घर से दिखने वाले बीच-बीच में किसी टीले पर बने छोटे-छोटे मिट्टी के घर मन को खींच रहे थे। मुझे लगा कि जैसे मैं कोई खूबसूरत ख्वाब देख रही हूँ। यहाँ की सरजमीन का अनोखा सौंदर्य अभी से मन में रिसने लगा था। उसी वक्त कोयले की खदानों और बांधों के निर्माण की वजह से यहाँ के प्राकृतिक सौंदर्य पर होने वाले हमले की मन में आते ही मन बैठ-सा गया।
गाड़ी सिंगरौली पहुँचने वाली थी। गाड़ी से उतरते ही सिंह जी हमारे इंतजार में खड़े मिले। मौनी बाबा द्वारा दीक्षा प्राप्त और इस हैसियत से शंकरी दी के गुरु के रिश्ते से भाई, सिंह जी के स्नेहिल व्यक्तित्व ने बेहद प्रभावित किया। उन्ही की मेज़बानी में मैं और राशी गेस्ट हाउस की ओर रवाना हुए। शंकरी दी हवाई जहाज से बनारस पहुँचकर सड़क मार्ग से सिंगरौली पहुँचने वाली थी। उनको पहुँचते-पहुँचते शाम हो जाएगी। इसीलिए मुझे स्टेशन से गेस्ट हाउस तक लाने का दायित्व सिंह जी ने ले लिया था। गाड़ी जब गेस्ट हाउस के प्रांगण में पहुँची तब प्रांगण का सजीला वातावरण और उड़ते सफेद पक्षियों को देखकर मन मुग्ध हो गया।
शाम के करीब चार बजे शंकरी दी, उनके पति, कलकत्ते से आई उनकी सहेली और उनके बेटे गेस्ट हाउस पहुँचे। उनके पहुँचने के बाद बातों बातों में दो तीन घंटे कैसे बीत गए पता ही नहीं चला। लग ही नहीं रहा था कि मैं शंकरी दी से एक महीने पहले मिली थी और उनकी सहेली से तो पहली बार मिल रही थी। शंकरी दी सिंगरौली में सत्रह-अठारह साल रह चुकी थीं। उनके पति ने तो यहाँ बीस साल से भी अधिक समय बिताया था। यहाँ आकर वे अपने पुराने मित्रों से मिल रहे थे। उन्हीं मित्रों के सौजन्य से इस गेस्ट हाउस में रहने की व्यवस्था हो पाई थी। शाम को हम सब इस इलाके के बाजार में गए। जो गोल बाजार के नाम से जाना जाता है। इस गोलाकार बाजार में हर जरूरत का सामान उपलब्ध है। सब्जी से लेकर कपड़ों तक। यहाँ पहुँचते ही शंकरी दी और उनके पति पुराने परिचित दुकानदारों से मिलने लगे। उनका अपनापन, देखकर मन मुग्ध हो गया। यह बात गौरतलब है कि पंद्रह साल पहले इस जगह को छोड़ जाने के बावजूद भी इतना गहरा रिश्ता अब भी कायम था। शंकरी दी ने बताया कि जब वे यहाँ रहा करते थे तब यहाँ जंगल ही जंगल था। इतनी दुकानें भी इस, गोल बाजार में नहीं थीं। जंगल की निर्जनता टी.वी. जैसे माध्यम के अधिक प्रचलन के अभाव और लोभनीय बाजारी वातावरण के अभाव के चलते लोगों के साथ लोगों का रिश्ता बेहद गहरा था। बाजारवादी वातावरण ने तब तक अपने पंजे यहाँ कसकर नहीं जमाए थे। तभी रिश्तों में अपनेपन का रंग इतना गहरा धुला हुआ था। गोल बाजार में घूमते हुए काफी वक्त बीत गया था। रात को गेस्ट हाउस लौटकर अगले दिन बाबा के आश्रम में जाने की तैयारियाँ करनी थीं। हम गेस्ट हाउस की ओर रवाना हुए।
अगले दिन सुबह छह बजे हम बाबा के आश्रम झुरईनाला के लिए रवाना हुए। दूर दिखने वाली विंध्याचल पर्वत की शृंखला, पलाश, सहगन, सिमूल के वृक्षों के जंगल, रास्ते में ही पलाश के वृक्ष से रास्ते पर झरे फूल, दूर तक फैले धान के खेत ने इस सफर में अनोखा रंग घोल दिया। शंकरी दी अपने पुराने दिनों की बातें कहती हुई चल रही थीं। बाबा के आश्रम जाने का यह रास्ता पहले इतना चौड़ा नहीं था। शहरी वातावरण की हल्की-सी छाप भी तब नहीं थी। चारों ओर सिर्फ जंगल और बीच से निकला कच्ची मिट्टी का रास्ता था। ऐसा ही नजारा था सिंगरौली का। जब से यहाँ कोयले के खदान मिले तब से गांव के गांव उजड़ने लगे। खदानों की रखवाली के लिए यहाँ के लोगों को ही काम पर लगाने की व्यवस्था चल पड़ी। पूंजी ने प्रकृति और मानव के बीच के मनोरम रिश्ते पर गहरा हमला किया। एक ओर इसका दर्द और दूसरी ओर जीवन के सफर को आसान बनाने वाले साधनों की प्राप्ति की आश्वस्ती दोनों ही शंकरी दी आँखों और बातों से झाँक रही थीं। यूँ ही बात करते हुए हम कब बाबा जी के आश्रम तक पहुँच गए पता ही नहीं चला।
बाबा जी ‘पंच तत्व’ आनन्द धाम सड़क के किनारे ही दिखाई दिया। दूर से ही ‘ऊँ’ लिखा हुआ दिखा रहा था। भीतर प्रवेश करते ही सामने हनुमान जी की मूर्ति दिखाई दी जिनके मस्तक के ऊपर श्रीराम, लक्ष्मण और सीता की मूर्तियाँ दी। शंकरी दी ने बताया कि जब बाबा जी इस जगह आए थे तब यहाँ जंगल था। वृक्ष के पास एक हनुमान जी की छोटी-सी मूर्ति थी। उनकी आत्मा ने महसूस किया कि मुझे यहीं रुककर साधना करनी होगी और वे वहीं रुक गए। आज वह छोटा-सा मंदिर एक खूबसूरत आकार ले चुका था। यहाँ बैठकर एक अद्भुत शान्ति महसूस हुई। पता चला कि इस जगह की छत पर जो नीला, सफेद, लाल और पीले रंगों के सहारे चौकोर बने हैं वे बाबा के निर्देशानुसार ही बने हैं। इनका खास मतलब है। इनका मतलब तो मुझे नहीं मालूम था लेकिन कुल मिलाकर इस जगह की सजावट और अनोखी स्थिति ने मन में शान्ति का रंग घोल दिया था। इस लेख का अधिकतर अंश मैंने यहीं बैठ कर लिखा।
बाबा से मिलने का पल हाजिर था। मन में संशय तो नहीं था लेकिन मन कुछ ऐसी शब्दावली खोज रहा था कि बाबा से दीक्षा देने के बारे में सकारात्मक जवाब ही मिले। सफेद धोती और सफेद चादर में एक सफेद कपड़े से ढके टूल पर बैठे बाबा से लोग बारी-बारी से कुछ पूछ रहे थे। वे स्लेट पर चॉक से लिखकर उन्हें अपनी बात बता रहे थे। जब उनकी नजर मुझ पर पड़ी मैंने हल्के से झुककर प्रणाम करने के लहजे में सिर झुकाया। ये बात मैं सुन चुकी थी कि बहुत लोग उनसे दीक्षा मांगते हैं लेकिन वे अक्सर टालते रहते हैं। सही समय का इंतजार करने के लिए कहते हैं। पहले ही दिन यहाँ आकर दीक्षा मिल जाए यह प्राय: नाममुकिन है। बाबा न पूजा पाठ करते हैं न मन्दिर में जल चढ़ाते हैं और न ही खाते पीते हैं। शांत भाव से बैठे रहना और कोई कुछ पूछे तो लिखकर बताना उनका कार्य है। इनकी ख्याति यहाँ के गांववालों के होठों पर कोई जब चाहे सुन ले। बिन बोले ही बहुत कुछ समझ जाते हैं। यहाँ पहुँचकर मुझे यह महसूस होने में देर नहीं हुई कि ये योगी विद्युत चुम्बकीय किरणों के सहारे पृथ्वी और ब्रह्मांड की शक्तियों से जुड़े हुए हैं। दूर-दूर से लोग उन्हें खोजते हुए आते हैं। मैं भी अजीबोगरीब ढंग से यहाँ पहुँची थी ध्येय था आत्मतत्व के साथ ब्रह्माण्ड के रिश्ते को वैज्ञनिक ढंग से समझने की चाह। क्योंकि यह ज्ञान न मुझे किताबों से मिल पा रहा था और न ही किसी गुरु से। नेट पर जो सामग्री थी उनमें से किस पर विश्वास करें और किस पर न करें यह समझना मुश्किल था। जिज्ञासा शान्त हुए बगैर मन को चैन से बैठना मंजूर नहीं था। इसी के साथ मन यह भी जानता था कि इन सवालों का जवाब एक पल में मिल पाना संभव नहीं था। क्योंकि जवाब के भीतर से नए सवालो का उभरना स्वाभाविक था, जैसे कि सागर की लहरें।
मेरे लिए दुनिया की रस्मों को मानते हुए पूजा पाठ करना असंभव था। जिस बात की वाजिब वैज्ञानिक व्याख्या न मिले उसे स्वीकार करना मुश्किल था। मन ब्रह्मांड के ऐसे वैज्ञानिक सत्य को जानने के लिए भटक रहा था जिसकी मौजूदगी का एहसास आधुनिक विज्ञान के प्रयोगों से तो हो रहा था लेकिन उसे संपूर्ण ढंग से शब्दों में बांध पाना मुश्किल था। क्योंकि बीच-बीच में काफी खाली जगह थी जिसे ज्ञान से भरना जरूरी था। ऐसे ही ज्ञानी की तलाश मुझे यहाँ तक ले आई थी। मंदिर प्रांगण में कदम रखते ही बाईं ओर नीले रंग पर सफेद रंग से लिखे ऊँ और उसके बाहर एक सफेद घेरा और उसके बाहर एक लाल घेरा और उसके बाद एक हरा घेरा देखकर मुझे महसूस हुआ था कि इस चित्र का गूढ़ अर्थ है जिसका जवाब इन ज्ञानी बाबा के पास है। इसमें ब्रह्मांड का कोई गहरा सत्य भी छिपा है। बाबा जी से दीक्षा के लिए पूछते ही उन्होंने तुरंत हाँ कर दिया। जैसे उन्हें मालूम हो कि मैं यहाँ क्यों आई हूँ। बीज मंत्र देने के बाद उन्होंने बताया कि मेरी जरूरत को महसूस करते हुए ही उन्होंने पहली बार में ही मुझे दीक्षा देना स्वीकार किया था। शक्ति, आकाश और शान्ति के रंगों की उन्होंने पहचान करवाई। जीवन से जुड़ी कई ऐसी बातों के साथ ब्रह्मांड की गति का संबंध बताया। मैं आश्वस्त थी कि मैं सही जगह पहुँची हूँ। यहाँ से हासिल अनुभव की बात फोन पर घरवालों से साझा करते ही उन्हें भी महसूस हुआ कि एक महीने पहले ही मिले शंकरी दी के साथ जाने का निश्चय करके मैंने गलत नहीं किया। फिर भी पूर्णरूपेण नास्तिक और वायुसेना में लंबा समय बिता चुके मेरे पिताजी के लिए मेरा यह निर्णय एक अनुशासनहीन कार्य ही था जिसमें सुनिश्चित परिकल्पना का अभाव था।
बाबा जी के आश्रम में एक रात रुकने की योजना थी। शाम को हम जंगल की ओर निकल पड़े। साल, सहगन, पालश, सिमूल, महुए के वृक्षों का जंगल, दूर दिखने वाली विंध्याचल की शृंखला तो हमने सफर मे देखी ही थी। लेकिन आज हम इसी जंगल के बीच रुककर समय बिताना चाहते थे। हमारी गाड़ी एक ऐसी जगह जाकर रुकी जहाँ से विंध्याचल पर्वत की शृंखला दिखाई दे रही थी। सिर के ऊपर पलाश का वृक्ष था जिससे लाल पलाश के फूलों ने टप-टप गिर कर काले रास्ते के एक छोटे से हिस्से को लाल कर दिया था। पास ही दावानल की राख से काली पड़ी जमीन दिखी। उस पर कुछ बड़े पत्थर इस तरह बिखरे हुए थे जिसे देखकर ऐसा लग रहा था कि मानो किसी ने यहाँ आकर उन्हें रख दिया हो। उसी रास्ते से गाँव की एक बूढ़ी औरत गुजर रही थी। उससे बात करने के दौरान ही एक जीप रास्ते से गुजरी। उसमें बाबा जी के बेटे थे। वे झुरईनाला के आश्रम से ही लौट रहे थे। उन्होंने हमसे अपने गाँव पुरैल चलने का आग्रह किया। हम भी ग्रामीण धरती की महक को उनके परिवार के जरिए और गहराई से महसूस करने उनके ही पीछे चल दिए। जब बाबाजी ने सन्यास लिया था, तब यही बेटे बहुत छोटे थे। परिवार से स्वीकृति हासिल करने के बाद ही उन्होंने गृह त्याग किया था। और फिर बरसों वे किसी के भी संपर्क से दूर कहाँ जाकर रहे यह किसी को भी पता नहीं। बरसों बाद जब उन्हें सिद्धि मिली अपनों को भी उनका पता चला तब उनका पूरा जीवन समाज कल्याण के लिए समर्पित हो चुका था। अब उनकी सिद्धि उनके तथा और कई गाँवों के लोगों के जीवन को दिशा देने के मार्ग में उन्हें अग्रसर कर चुकी थी। गाँव के कई लोग जिन्होंने जीवन को बेहतर ढंग से जीने के लिए उनके ज्ञान का सहारा पाया था आज वे आश्रम के लिए समर्पित थे। मेरी खुशनसीबी थी कि उनके सिद्धि पाने वाले दिन यहाँ आकर उनसे मिलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।
दूर कहीं विंध्याचल की शृंखला, कभी खेत तो कभी पलाश, साल, सहगन, महुए के वृक्ष, कभी घने जंगल में लगे दावानल का दृश्य देखते हुए हम पुरैल गांव की ओर बढ़ रहे थे। अंधेरा हो चुका था। हमारी गाड़ी जीप का पीछा करते हुए एक विशाल मिट्टी के घर के सामने आकर रुकी। यह बाबा जी का वह गृह था जिसे उन्होंने बरसों पहले त्याग दिया। घर के चारों ओर धान और भुट्टे के पौधे थे। एक अद्भुत मनोरम वातावरण था। मन कह रहा था कि यहाँ अगर सुबह आना होता तो यही आनन्द सौ गुना बढ़ जाता। खास कर खेतों के बीच से निकली एक कच्ची मिट्टी की पतली सड़क से गुजरना जिसके किनारे पलाश के वृक्ष और पलाश के फूलों का रास्ते पर गिरकर बिखरे रहने का दृश्य मन बार-बार देखना चाह रहा था। बाबाजी के मझले भाई पुरैल डाकघर के पोस्ट मास्टर थे। घर पर ही डाकघर था। घर के सदर दरवाजे पर ही पोस्ट बाक्स और इंडिया पोस्ट का बैनर लगा हुआ दिखा। दरवाजे से भीतर प्रवेश करना मानों हमें किसी ऐतिहासिक युग में ले गया। मिट्टी की दीवारों से बना घर, घर के भीतर की सजावट में प्राचीन संस्कृति की महक थी। दीवार पर ही मिट्टी से बने कोठर जो आधुनिक युग के शेल्फ का काम देते हैं। मिट्टी के चुल्हे कम ऊँचाई वाले दरवाजे, बीच में बड़ा आंगन जिसमें तुलसी का पौधा लगा है, एक घर से होकर दूसरे घर में जाने का रास्ता मानो कोई भूल भुलैया हो। तीन भाइयों के परिवार के सदस्य अपने-अपने घर से आंगन में पहुँच सकते थे। यह साझा आंगन था। एक ओर दीवारों पर लटके भुट्टों का झाड़, घर में फैलाकर रखे खेत से निकाले गए आलू और दूसरी ओर घर में मौजूद आवश्यक आधुनिक असबाब दो अलग-अलग पीढ़ियों के एक साथ रहने का उदाहरण पेश कर रहे थे। बाबा जी इन सब से अलग निर्लिप्त थे। इतना निर्लिप्त कि उन्हें पाने के बाद जब उनसे यह आग्रह किया गया कि वे भले ही साधना में लीन रहें लेकिन दस्तखत करके महीने की पगार लेते रहें ताकि यह पैसा परिवार के काम आ सके, तब उन्होंने साफ इन्कार कर दिया। साझा परिवार और उनका तप और विशाल पुश्तैनी संपत्ति ने ही कभी उनके परिवार वालों को अकेले होने का अहसास ही नहीं होने दिया। इस परिवार की एकता को हमने उस शाम महसूस किया । परिवार के सदस्य आश्रम में हुए आज के कार्यक्रम में शामिल होकर लौटे थे लेकिन हमारे जाते ही वे इस तरह आवभगत में जुट गए कि लगा ही नहीं कि वे थके हुए भी हो सकते हैं। उस दिन मैंने पहली बार खेतों से तुरंत उठाकर भूना हुआ भुट्टा खाया। इसके स्वाद को ताजेपन के साथ अपनेपन ने मानो सौ गुना बढ़ा दिया था। उस दिन मैंने मिट्टी के घर के बनावट को काफी करीब से देखा। यह जाना कि खपरैल की दो छतों के बीच कैसे अनाज को सुरक्षित रखा जाता है और मिट्टी की दीवार को छुई मिट्टी से लीपने के बाद वह सूखकर सफेद रंग की हो जाती है। इस भरे पूरे परिवार को देखकर मन भर गया था लेकिन साथ ही इस बात को सुनकर मन उदास भी हो गया था कि कुछ सालों बाद अगर यहाँ आए तो यह घर यहाँ नहीं मिलेगा क्योंकि इस इलाके में भी कोयले की खदान होने के कारण खनन कार्य आरंभ हो जाएगा। तब ये खेत और यह घर भी बाजारवादी शक्तियों की भेंट चढ़ जाएंगे। एक तरफ आधुनिक संस्कृति का यह शिकंजा था और दूसरी तरफ परिवार की संस्कृति में आधुनिक और पारंपरिक मूल्यों का संगम था। इस संगम को मैंने तब महसूस किया जब समूह तस्वीर खिंचवाने के लिए घर के छोटे बेटे की बहू अपने जेठ जी के समक्ष नहीं आई लेकिन इसी घर ने एक और बेटे के लिए यह बात सहजता से स्वीकार कर ली है कि काम के सिलसिले में बेटे को कहीं और बहू को कहीं और रहना पड़ेगा। ऐसी ही अभिनव अनुभूति मुझे तब भी हुई थी जब गोलमार्केट में घूमते हुए शंकरी दी ने एक ऐसे दुकानदार से परिचय करवाया था जिन्होंने बेटी को खूब पढ़ाया और बेटों को कम पढ़ाया। उनका कहना था कि बेटा ज्यादा पढ़ेगा तो दुकान पर कौन बैठेगा? नौकरी के पीछे दौड़कर हमें छोड़कर चला जाएगा। बेटी का ज्यादा पढ़ना जरूरी है क्योंकि ससुराल में जाकर उसकी सूझबूझ और जरूरत पड़ने पर उसकी यही शिक्षा ही काम आएगी।
अगले दिन आश्रम से निकलने का पल हाजिर था। इस एक दिन में मेरे कई नए दोस्त बन गए थे। जैसे आश्रम में प्यार से सबके नाश्ते पानी का ध्यान रखने वाली नुपूर, श्वेता, संतोषी, साधना और आश्रम के रख-रखाव में निरंतर लीन वकील साहब, जो पहले वकालत करते थे लेकिन साधना पथ चुनने के बाद वकालत छोड़ दी थी। आश्रम में ही मिला एक प्यारा-सा सात आठ साल का लड़का कृपाशंकर और उसका छोटा भाई भीमशंकर। बड़े भाई की सूझबूझ, बड़ों जैसी नीति प्रधान बातें, उन्हें कहने का लहजा और इन सब के साथ एक अजीब-सा बचपना मन को मुग्ध कर गया। उसके छोटे भाई और उसकी जोड़ी जैसे राम लक्ष्मण की जोड़ी थी। सबको छोड़कर जाना मुश्किल था। झुरईनाला में बाबा के आश्रम से मैं जीवन जीने की एक सुनिश्चित राह और एक नया दृष्टिकोण लेकर निकल रही थी।
गुरुजी के आश्रम से लौटते हुए हम उन गली, मुहल्लों से गुजरे जहाँ शंकरी दी ने अपने परिवार के साथ कई साल बिताए थे। अपने पुराने क्वार्टर के बगल से गुजरते हुए उन्हें कुछ परिचित भी मिले। अपनों से अचानक मिलने की खुशी का अहसास उनके चेहरे पर साफ उभर आया था। वह हमें उन सभी जगहों पर ले जाना चाहती थी जहाँ अपने परिवार के साथ वह घंटों वक्त बिताया करती थी। हमें वह ज्वालामुखी मंदिर ले गई। वहाँ लगे मेले, रोशनी की चकाचौंध, देवी मां का चेहरा और मंदिर का माहौल देखकर शंकरी दी बोल उठी कि यहाँ सिर्फ एक पत्थर था जिसकी पूजा हुआ करती थी। अब इस पर चेहरा लग गया है। शंकरी दी हर पल मानो आज की हकीकत को बीते हुए कल से तुलना करते हुए नाप लेना चाहती थी। इसके बाद वह जयंत नगर के उस काली मंदिर में भी ले गईं जिसकी स्थापना बरसों पहले उन्हीं के साथियों ने मिलकर की थी। आज वह मंदिर विशाल आकार ले चुका था। वहाँ आकर मानो शंकरी दी की पुरानी यादें तरोताज़ा हो रही थीं।
सिंगरौली से निकलकर बनारस के लिए रवाना होने का समय आ गया था। यह दूरी हम सड़क मार्ग से तय कर रहे थे। इस इलाके के पहाड़ों का अनोखा सौंदर्य देखते हुए हम आगे बढ़ रहे थे। पहाड़ों का अनोखा सौंदर्य देखते हुए हम आगे बढ़ रहे थे। पहाड़ों और खेतों को एक साथ देख पाना एक अनोखा अनुभव था। रिहंद बांध और सोन नदी के आसपास के इलाके ने आँखों को जैसे बांध लिया था। ऊँचे-नीचे रास्ते से गुजरते हुए बनारस पहुँचने में लगभग साढ़े पाँच घंटे लगे। अगले दिन बनारस से कोलकाता के लिए रेलगाड़ी पकड़नी थी। इसलिए शंकरी दी और उनके पति की कोशिश थी कि उस दिन संकटमोचन, सारनाथ, कालभैरव का मंदिर हमें दिखा दिया जाए। कहा जाता है कि कालभैरव बनारस शहर के प्रहरी हैं। यहाँ के राजा हैं शिव और रानी हैं माँ अन्नपूर्णा। समय की कमी के कारण बनारस की आत्मा को महसूस कर पाना संभव नहीं हो पाया। विश्वनाथ तथा अन्नपूर्णा मंदिर और विशुद्धानन्द कानन आश्रम कहीं भी जाना संभव नहीं हो पाया। इसलिए इस शहर में दोबारा आने की हसरतें लेकर मैं लौट रही थी। जाते-जाते अमृतसर हावड़ा मेल के आठ घंटे देरी से आने की घटना ने एक और व्यक्ति से परिचय करवाया। जब खबर मिली कि पंजाब मेल तकरीबन रात के साढ़े बारह बजे बनारस पहुँचेगी तब माथे पर चिंता की रेखाएँ उभर आई थीं। क्योंकि बेटी की तबीयत सुबह से थोड़ी खराब थी। ऐसे में बनारस स्टेशन के ही एक कुली राजेन्द्र जी से पहचान हुई। भले ही उनसे उनकी सेवा के लिए तीन सौ रुपये की रकम देने की बात तय हुई थी लेकिन लगातार आकर बच्ची की तबीयत के बारे में पूछना और निश्चिंत होकर आराम करने की बात कह कर जाना उस बुजुर्ग व्यक्ति के स्नेहिल स्वभाव को ही व्यक्त कर रहा था। उन्हीं की वजह से निश्चिंत भाव से हम रात के बारह पैंतालिस को ट्रेन से हावड़ा के लिए रवाना हो पाए। इस अप्रत्याशित सफर की यादों के साथ मैं बनारस से हावड़ा की दूरी कर रही थी। मन जैसे यह बात बारीकी से जान लेना चाहता था कि इस सफर में इसने अपनी झोली में क्या-क्या बटोरा।

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