ज्ञान का अधूरापन और आधुनिक समाज

ज्ञान का अधूरापन और आधुनिक समाज

आज शिक्षा को डिग्री से नापा जाता है और ज्ञान सूचना तक सीमित होकर रह गया है। ज्ञान की अवधारणा के सूचना तक सिमट कर रह जाने के कारण ही आज शिक्षक का काम कम्प्यूटर से करवा पाने की संभावनाएँ बुलंद हो गई हैं। हम ऐसे दौर से गुजर रहे हैं जहाँ शिक्षा के स्तर में गिरावट आई है और शिक्षितों के आँकड़ों में वृद्धि हुई है। शिक्षितों की यह पीढ़ी नौकरी के अलावा आत्मनिर्भर बनने की दूसरी राह आसानी से खोज नहीं पाती। यही पीढ़ी रोजगार विनिमय के दफ्तर में भीड़ जमाती है और बेरोजगारी के कारण सरकार को कोसती है। इस समस्या की जड़ ज्ञान की अवधारणा के स्खलन में छिपा है।
ज्ञान तब तक किसी काम का नहीं जब तक वह दृष्टि में रूपांतरित न हो। ऐसी दृष्टि जो जीवन और समाज की बेहतरी के लिए व्यवहारिक कार्यों को अंजाम देने की ताकत रखती हो। यह दृष्टि उस सीमित दृष्टि से एकदम अलग है जिसका दायरा किसी विषय विशेष के किसी प्रसंग तक सीमित होता है। मसलन इतिहास के किसी युग का प्रसंग या फिर किसी लेखक की काव्यकला का प्रसंग। इस बात में कोई शक नहीं कि किसी विषय के एक छोटे से क्षेत्र को चुनकर किए गए अध्ययन से उस क्षेत्र की गहरी समझ पैदा होती है। लेकिन यह समझ जीवन और समाज को तब समृद्ध कर पाएगी जब इसे किसी वृहद् दृष्टि के आलोक में देखा जाएगा। ऐसी दृष्टि जो इस बात का आकलन कर सके कि अध्ययन किया गया विषय मानव जीवन, समाज और संस्कृति के विकास को किस दिशा में ले जा रहा है? ऐसी दृष्टि की भूमिका कम्पास की तरह होगी। दर्शनशास्त्र में ऐसी दृष्टि तैयार करने की ताकत है।
भारत का प्राचीन दर्शनशास्त्र बिखरी हुई दृष्टियों को एक सूत्र में पिरोकर जीवन और समाजोपयोगी ज्ञान पैदा कर सकता है। दर्शनशास्त्र से ऐसा काम लेने के लिए इसके सार को समझकर विषयों को समग्रता में देखने का नजरिया विकसित करना होगा। ऐसे नजरिए का पंख पाते ही यथार्थ को उस ऊँचाई से देखने की ताकत मिलेगी जहाँ से ज्ञात हो पाएगा कि यह यथार्थ जीवन और समाज के विकास को किस दिशा में ले जा रहा है। आज के युग की सबसे बड़ी विडम्बना यह है कि विश्व की प्रकृति और इसमें प्रचलित कार्यव्यापार को समझने की समग्रता में कोशिश नहीं की जाती बल्कि इतिहास, साहित्य, विज्ञान, गणित जैसे तमाम विषयों की अवधारणा को जेहन में अलग-अलग डिब्बे बनाकर बैठा दिया जाता है। आज सोच में इतना बिखराव आ गया है कि यह दिखाई ही नहीं देता कि डिब्बों में बंटी ज्ञान की गाड़ी बगैर इंजन के जिंदगी के प्लेटफार्म तक कैसे पहुँचेगी?
दरअसल बोध की सुकरता के लिए अध्ययन के विषयों को वर्गों में विभाजित करके देखना जितना जरूरी है, उतना ही जरूरी है इतिहास, भूगोल, साहित्य, गणित, विज्ञान जैसे तमाम विषयों से हासिल ज्ञान को सूत्र में पिरोकर इससे विश्व के स्वरूप, प्रकृति, कार्यव्यापार और शक्तिकेन्द्रों का आभास पाना। क्योंकि व्यक्ति, परिवार, समाज, देश और राष्ट्रों में बँटी पृथ्वी ब्रह्मांड का अंग है तथा ब्रह्माण्ड की कई शक्तियाँ विज्ञान द्वारा प्रमाणित हैं और मनुष्य में भी उसी शक्ति का अंश है। प्राचीन दर्शनशास्त्र ब्रह्मांड को समझने की कुंजी है और विज्ञान द्वारा प्रमाणित तथ्यों से ब्रह्मांड के नियम का पृथ्वी और उसके प्राणियों पर पड़ने वाले प्रभाव को समझा जा सकता है।
दर्शनशास्त्र की तीन शाखाएँ हैं। पहली शाखा किसी विषय का ज्ञान हासिल करने की संभावनाओं, साधनों और पद्धति से संबंधित है। दूसरी शाखा ज्ञान के साधनों के जरिए विश्व को समझने से संबंधित है। और तीसरी शाखा नैतिकता के प्रश्नों से संबंधित है। इसमें दूसरी शाखा आज सबसे ज्यादा चर्चित है। यह शाखा विश्व की प्रकृति, आत्मतत्व की प्रकृति और शाश्वत की प्रकृति को समझने वाले सवालों से जूझती है। आज नौकरीपेशा या फिर बेरोजगार शिक्षितों में प्राप्त डिप्रेशन, पेशे से असंतुष्टि के भाव से यह महसूस किया जा सकता है कि व्यक्ति के शरीर में निवास करने वाले आत्मतत्व की एक खास सत्ता है। इस आत्मतत्व को समझने की कोशिश करना निश्चित रूप से शिक्षा का खास लक्ष्य होना चाहिए। शिक्षा के जरिए आत्मतत्व को उसकी प्रकृति के अनुरूप पुष्ट करना जरूरी है। यह पुष्ट आत्मतत्व व्यक्ति को अपने जीवन और समाज के लिए बेहतर राह खोजने के काबिल बना सकता है। आत्मा की प्रकृति को जाने बगैर बाहरी तत्वों की मदद से व्यक्ति में किसी काम को करने की इच्छा पैदा करने की कोशिश करना उल्टी गंगा बहाना है। आत्मतत्व की प्रकृति के प्रश्न को दरकिनार करके किसी काम में रुचि जगाने के लिए व्यक्ति में धन, ओहदे, नौकरी या किसी वस्तु का लोभ पैदा करना पड़ता है। ऐसा लोभ पैदा करना श्वान को हड्डी दिखाकर दौड़ाने के बराबर है। यह प्रवृत्ति इंसानों को श्वानों जैसा बनाकर छोड़ती है। आज विज्ञापन यही काम मनोविज्ञान के सहारे कर रही है। इस प्रक्रिया की ’ऐंटीथीसिस’ दर्शनशास्त्र की तिजोरी में बंद पड़ी है। आज नैतिकता के स्खलन और मानसिक शांति के लगातार ह्रास के इस दौर में आत्मतत्व को जानने का सवाल जरूरी हो गया है।
शाश्वत की अवधारणा आत्मतत्व के विकास के सावल को दिशा देने की ताकत रखती है। न्यूटन के समय और स्पेस संबंधी सिद्धांत में शाश्वत किसी मंच के उस बैक ड्रॉप की तरह है जो स्थिर रहता है। वह मंच पर चल रही गतिविधियों को कसने की एक कसौटी की तरह हमेशा विद्यमान है। इसे आदर्श सत्ता या ईश्वर का नाम देना गलत होगा। क्योंकि ईश्वर या आदर्श सत्ता की अवधारणाएँ सामाजिक विकास की प्रक्रिया में विकसित हुई है। और केवल कला वर्ग के चिंतन का अंग है। इस अवधारणा के लचीलेपन ने इसके अपव्यवहार को भी बढ़ावा दिया है। शाश्वत की अवधारणा ब्रह्मांड का आधार है। ब्रह्मांड के नियम के तहत जड़ और चेतन पदार्थ परमाणु से बने हैं। ब्रह्मांड के सारे क्रिया-कलापों की जड़ है ऊर्जा। पाँच तत्वों से बना यह मानव शरीर दरअसल एक इलेक्ट्रो-मैगनेटिक उपकरण है। प्राण दरअसल वह विद्युत है जो इसे संचालित करता है। विद्युत के कारण ही जैसे तार भीतर से गर्म हो जाता है ठीक उसी तरह प्राण के कारण ही शरीर गर्म रहता है। प्राण के निकलते ही शरीर ठंडा होने लगता है। नाड़ियाँ और धमनियाँ तारों की तरह हैं जिनमें रक्त के जरिए विद्युत बहता है। पंच तत्व के शरीर की मानसिक उपज सोच और प्रार्थना में परमाणु के जरिए कंपन पैदा करने की ऊर्जा होती है। इनका फल या प्रभाव इनके द्वारा कंपन पैदा करने वाली ऊर्जा के घनत्व पर निर्भर करता है।
इस लिहाज से देखें तो ’आज कल भलाई का जमाना नहीं रहा’ यह कहने वाले हालात, सच्चाई और भलाई की प्रतिष्ठा चाहने वालों के सोच और इरादों के ढीलेपन के कारण ही पैदा हुए हैं। जड़ पदार्थों में ऊर्जा की स्थिति अलग रूप में होती है। किर्लियन फोटोग्राफी या जी.डी.वी कैमरा के जरिए जड़ या चेतन पदार्थ की ऊर्जा के इलेक्ट्रो-मैग्नेटिक क्षेत्र की तस्वीरें ली जा सकती हैं। तस्वीर में यह क्षेत्र प्रकाश के रूप में दिखाई देता है जिसे साधारणत: औरा के नाम से जाना जाता है। किसी व्यक्ति के औरा (इलेक्ट्रो-मैगनेटिक क्षेत्र) का शक्तिशाली या कमजोर होना उस व्यक्ति की सोच, भावनाओं और विचारों की प्रकृति पर निर्भर करता है।
मनुष्य में स्थित आत्मतत्व में वह ऊर्जा है जो कंपन का आधार बनकर ब्रह्मांड की गति और लय से तादात्म्य स्थापित करके हालात को प्रभावित कर सकती है। तभी मनुष्य ब्रह्मांड का सर्वश्रेष्ठ प्राणी है। ब्रह्मांड की इस अद्भुत कृति में छिपी कस्तूरी को अपनी खुशबू फैलाने के काबिल बनाने की ताकत सिर्फ शिक्षा में है। शिक्षा के जरिए ही ब्रह्मांड के रहस्य को नई पीढ़ी को समझाया जा सकता है। दुर्भाग्य की बात यह है कि आज की शिक्षा ब्रह्मांड का ज्ञान पैदा करने के सावल से विच्छिन्न है। शिक्षा क्षेत्र में तो आज सिर्फ डिग्री अच्छे अंक पाने के उद्देश्य का बोलबाला है।
न्यूटन के शाश्वत की अवधारणा को आधुनिक विज्ञान के पिता आइन्सटाइन के सापेक्षता के सिद्धांत ने पीछे धकेलकर शाश्वत की अवधारणा को ही दृष्टि से ओझल कर दिया। अब ब्रह्मांड के कार्यव्यापारों को आधार देने वाली समय और स्पेस की अवधारणाएं भौतिक दृष्टि की मोहताज हो गई। समय, स्पेस और ऊर्जा की जो परिभाषाएँ विद्यालय से ही विज्ञान के जरिए विद्यार्थियों के जेहन में बैठाई जाती हैं वह इसी दृष्टि से प्रभावित है। समय और स्पेस को देखने का यह नजरिया इतिहास और साहित्य को देखने की दृष्टि को भी नियंत्रित करता है। इस दृष्टि से हालात को देखना दरअसल जमीनी स्तर से हालात को देखना है। इस स्तर से हालात की बारीकियाँ और कारण कार्य संबंध भले ही नजर आए पर इसके साथ ही हालात की विकरालता और व्यापकता का ऐहसास भी हमें घेर लेता है। हम समस्या की जड़ों को खोजते हुए पाताल तक पहुँच जाते हैं लेकिन जड़ों को पहचानने के बावजूद इन्हें उखाड़ने का उपाय नहीं दिखता। सामंती मूल्य, बाजारवादी मूल्यों की प्रकृति कुछ ऐसी ही है। जमीनी स्तर से विश्व और समाज को देखने वाले साहित्यकार चाहे सांस्कृतिक, सामाजिक, राजनैतिक, किसी भी दृष्टि से काम ले आज के युग में उन्हें उपभोक्तावाद बाजारवाद की विकरालता ही नजर आएगी। इन्हें काटने का रास्ता इस स्तर पर मिलना संभव नहीं क्योंकि इसी स्तर पर शिक्षा, धर्म, संस्कृति, विज्ञान यहाँ तक कि दर्शन तक अपना प्रभाव फैलाकर बाजारवादी शक्तियों ने आत्मा की ऊर्जा को दबा कर रखा है।
प्राचीन दर्शनशास्त्र में ब्रह्मांड के नियमों के तर्ज पर विश्व को देखने का नजरिया देने की ताकत है। अन्य शब्दों में कहें तो यह दृष्टि को जमीनी स्तर से ऊपर उठाने की ताकत रखती है। इस स्तर से सत्य का एक दूसरा पहलू नजर आता है। यही स्तर भारत के तमाम मनीषियों की वैचारिक ऊर्जा का शक्ति केन्द्र रहा है। सांख्य दर्शन, वैदिक ऋचाओं की तिजोरी में बंद ज्ञान इसी स्तर पर विकसित हुआ है। इस स्तर से देखें तो विश्व ऊर्जा के खेल का जगत है। मृत्यु भी ऊर्जा के रूपांतरण की ही घटना है। पंचतत्व के शरीर में कैद ऊर्जा को ज्ञान के जरिए सतेज रखकर एक सार्थक जीवन जीया जा सकता है। प्राचीन काल से लेकर अब तक इतिहास, भूगोल, साहित्य, गणित, विज्ञान, समाजशास्त्र, राजनीतिशास्त्र, दर्शनशास्त्र जैसे तमाम विषय और आज कॉलेज विश्वविद्यालयों में पढ़ाए जाने वाले नए-नए विषय इंसान को उसमें स्थित ऊर्जा का प्रयोग जीवन और समाज को समृद्ध बनाने के लिए करने का ज्ञान किस तरह दे सकते हैं इसे कार्यशालाओं के जरिए निर्धारित करना वर्तमान दौर की बहुत बड़ी मांग है।
विश्व ब्रह्मांड की प्रकृति को समझने की पहल विद्यालय के पाठ्यक्रम में दृश्यमान प्रकृति के निरीक्षण के विषय को शामिल करके किया जा सकता है। प्राचीन दर्शनशास्त्र प्रकृति की गोद में पला है। इसमें विश्व ब्रह्मांड की प्रकृति को समझने का आधार प्रकृति निरीक्षण ही है। मनुष्य प्रकृति का ही अंग है और प्रकृति के अवयवों से खुद को जोड़कर देखते हुए उनकी और अपनी प्रकृति एवं क्षमताओं में साम्य और वैषम्य को महसूस करना मनुष्य की शिक्षा का अंग होना चाहिए। ऐसी शिक्षा से विद्यार्थियों के मन और मस्तिष्क का विकास प्रकृति से तादात्म्य स्थापित करते हुए हो पाएगा। दृश्यमान प्रकृति को निरखते हुए ही मानव दृष्टि अपनी अन्त: प्रकृति के साथ विश्व ब्रह्मांड के संपर्क को समझने की ओर अग्रसर हो सकती है। इस प्रक्रिया से गुजरते हुए विकसित अंतर्दृष्टि आज विद्यालय, कॉलेज, विश्वविद्यालय में पढ़ाए जाने वाले विषयों को एक खास स्तर से देखते हुए उनके जरिए जीवन और समाज को समृद्ध करने की राहें खोजने में सक्षम हो सकती है।

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