विज्ञान और अंतर्ज्ञान

विज्ञान और अंतर्ज्ञान

प्राचीन काल में अध्यात्म, प्रकृति, विज्ञान की अवधारणाओं में भेद नहीं था। मनुष्य को सृष्टि के अंग के रूप में देखा जाता था। आत्मा, प्राण, प्रकृति और मनुष्य के संबंध के स्वरूप जैसे गंभीर विषयों पर उस युग में मनन चिंतन हुआ। अंतर्ज्ञान को खास महत्व दिया गया। अंतर्ज्ञान से पैदा होने वाली चेतना के ठीक विपरीत थी विवेक प्रधान चेतना। विवेक प्रधान ज्ञान किसी घटना, प्रक्रिया या वस्तु पर निर्भर होती है। इसलिए बौद्ध उसे निर्भरशील ज्ञान का दर्जा देते हैं और अंतर्ज्ञान को पूर्ण ज्ञान का दर्जा। उपनिषद में इस पूर्ण ज्ञान की व्याख्या कुछ इस प्रकार मिलती है: “वह जो शब्दहीन, स्पर्शहीन, निराकार, अंतहीन, स्वादहीन, शाश्वत गंधहीन है। जिसका कोई आदि या अंत नहीं, जो महान से भी उच्च है, उसे जानने से मृत्यु के मुँह से बचा जा सकता है। ऐसे अनुभव से प्राप्त ज्ञान पूर्ण है।” (कठोपनिषद 3.15)
पृथकीकरण, विभाजन, तुलना, तौलना, वर्गीकरण करना बुद्धि और तर्क पर आधारित चेतना के प्रमुख लक्षण हैं। यह चेतना सत्य को अलग-लग कटघरों में बाँटकर विश्व की प्रकृति को समझने की कोशिश करती है। विज्ञान इसी चेतना की उपज है। दुनिया में असंख्य आकार की वस्तुएँ, संरचनाएँ और प्रक्रियाएँ मौजूद हैं। इन सबके लिए अलग-अलग वर्ग निर्धारित करना असंभव है। ऐसे में बुद्धि इनमें से जो अधिक प्रासंगिक और स्पष्ट है उन्हें चुनकर क्रम में रखने, अवधारणाएँ रचने और उनके लिए चिन्ह निर्धारित करने का काम करती है। इस प्रकार विवेक प्रधान ज्ञान प्रकृति के खास लक्षणों या प्रक्रियाओँ के चुनाव पर ही आधारित होता है। इसलिए इस ज्ञान से पैदा होने वाले हर शब्द की अपनी सीमाएँ हैं पदार्थ विज्ञानी वर्नर हाईजेनवर्ग पदार्थ विज्ञान के शब्दों के संबंध में कहते हैं, ‘शब्द और अवधारणाएँ जितनी स्पष्ट दिखाई देती हैं उनका प्रयोग क्षेत्र उतना ही सीमित होता है।”
दरअसल अंतर्ज्ञान से पैदा होने वाली आत्मचेतना प्रकृति की हकीकत को सीधे अंतर्दृष्टि के जरिए महसूस करती है। जबकि पदार्थ विज्ञान प्रयोग के जरिए प्राकृतिक प्रक्रियाओं का निरीक्षण करके प्रकृति की हकीकत को समझता है। देखने की सीमाएँ यहाँ ज्ञान की सीमाएँ बन जाती हैं। इस तरह विज्ञान सत्य को संपूर्ण रूप से नहीं बल्कि उसके अंश को ही पकड़ पाता है। मसलन, न्यूटन के क्लासिकल मैकानिक्स को ही देखा जा सकता है। इस मॉडल में वायु की प्रतिरोध शक्ति ‘फ्रिक्सन’ के प्रभाव की उपेक्षा की गई है। बावजूद इसके यह मॉडल लंबे समय तक प्रकृति की प्रक्रिया को जानने के सबसे बेहतरीन सिद्धांत के रूप में विज्ञान के जगत पर छाया रहा। विद्युत और चुम्बकीय प्रक्रिया के लिए इस मॉडल में कोई जगह नहीं थी क्योंकि तब ये प्रक्रियाएँ आविष्कृत नहीं हुई थीं। इनके आविष्कार ने यह साबित किया कि न्यूटन का सिद्धांत अधूरा है। जिस वस्तु में भारी संख्या में परमाणु हैं और जिनकी गति आलोक गति से कम है उन पर यह सिद्धांत चल सकता है पर जिनकी गति आलोक गति से ज्यादा है वहाँ क्वांटम सिद्धांत से ही काम लेना पड़ेगा। अफसोस की बात यह है कि विद्यालय स्तर से लेकर महाविद्यालय स्तर तक क्वांटम सिद्धांत को पाठ्यक्रम में आवश्यक जगह नहीं मिल पाई है। इसके अभाव में प्रकृति के संबंध में विद्यार्थियों का ज्ञान भी अधूरा होगा।
गणित भी अवधारणाओं और चिह्नों की व्यवस्था के जरिए सत्य का मानचित्र तैयार करने की कोशिश करता है। दरअसल गणितज्ञ सत्य से संबंधित सूचनाओं को चिह्नों का रूप देकर फॉर्मूलों में अटाता है। और फिर इन्हें बोधगम्य बनाने के लिए पन्नों पर पन्ना लिखता है। गौर से देखें तो फॉर्मूलों में सत्य को चिह्नों का रूप देकर उन्हें भाववाचक बनाया जाता है। इसे बुद्धिजीवी तो समझ लेता है लेकिन सत्य को बाँधकर, काटकर फॉर्मूलों के कैप्सूल में भरने की वजह से वह यथार्थ जगत और जन साधारण से कट जाता है। दरअसल गणित की भाषा हमें उस मुकाम तक ले गई है जहाँ सत्य को अभिव्यक्त करने वाले चिह्नों को समझना दुरूह हो गया है। यही कारण है कि उन्हें व्याख्यायित करने के लिए आज शब्दों की जरूरत पड़ रही है। अलग-अलग ढंग से इनकी व्याख्याएँ हो रही हैं और ये व्याख्याएँ संकेतों को अवधारणाओं की व्याख्या के जरिए डीकोड करके सत्य का एहसास दिलाने वाली दृष्टि पैदा करने की कोशिश में लगी हैं। इस दृष्टि में फ़ॉर्मूलों जैसी सटीकता नहीं होती। गणित की ऐसी व्याख्या दर्शनशास्त्र के मॉडलों के समान ही सत्य की छवि आंकती है। यही वह बिन्दु है जहाँ विज्ञान और दर्शन के मॉडल एक ही जमीन पर खड़े दिखाई देते हैं।
पिछले हजार वर्षों में बौद्धिक ज्ञान के विस्तार और मानवता के स्खलन ने इस बात को प्रमाणित कर दिया है कि अंतर्ज्ञान के बगैर मानवता का पाठ पढ़ाना मुश्किल है। अंतर्ज्ञान हासिल करना दरअसल चेतना की असमान्य अवस्था में बुद्धि से परे जाकर सत्य का अनुभव हासिल करना है। बुद्धि के संदेह, तर्क जैसे हथियार लड़ने भिड़ने की जमीन तैयार करते हैं। लेकिन अंतर्ज्ञान के अभाव में लड़ने भिड़ने के हथियारों के जरिए ही बचना संभव है, यह भी अकाट्य सत्य है। बौद्धिक चेतना को ही आधुनिक युग में उत्कृष्ट चेतना का दर्जा दिया जाता है। अगर यही चेतना उत्कृष्ट होती तो बुद्धिजीवियों में अलग-अलग किस्म के मानसिक विकार न मिलते। दरअसल चेतना के कई प्रकार हैं। इस संदर्भ में विलियम जेम्स अपनी पुस्तक ‘द वेराइटीज ऑफ रिलीजियस एक्सपीरियेन्सेस में कहते हैं –
“हमारी तथाकथित साधारण जगत चेतना, बुद्धि सम्पन्न चेतना केवल एक तरह की चेतना है। जबकि उससे अलग परदे के पीछे चेतना के अलग-अलग शक्तिशाली रूप मौजूद हैं।” अंतर्ज्ञान शक्तिशाली चेतना की ही उपज है।
अतंर्ज्ञान विज्ञान के क्षेत्र में भी खास भूमिका निभाता है। विज्ञान में शोध के क्षेत्र में बुद्धि के प्रयोग का प्रश्न तब तक नहीं आता जब तक वैज्ञानिक का अंतर्ज्ञान इसे इस क्षेत्र में बुद्धि के प्रयोग की अतंर्दृष्टि नहीं देता। यही सृजनात्मकता की जमीन है। इस अंतर्दृष्टि की यह खासियत है कि यह एकाएक जगती है। कलम कागज लेकर बुद्धि पर दबाव डालने वाले हालात में यह पैदा नहीं होती। बल्कि ध्यान केन्द्रित बौद्धिक गतिविधि के बाद आराम के पलों में यह अतंर्ज्ञान स्वत: स्फुरित होता है। जैसे बादलों को चीरकर सूरज निकलता है। ठीक उसी तरह जिस तरह न्यूटन को गिरते हुए सेव को देखकर पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति पर सोचने की दृष्टि मिली थी। इसे पाने का आनंद दुगना होता है। पदार्थ विज्ञान की सबसे बड़ी सीमा यह है कि उपर्युक्त अंतर्ज्ञान से प्रेरित दृष्टि का यहाँ तब तक कोई महत्व नहीं जब तक उसे गणित की भाषा में प्रमाणित करके शब्दों में उसका विश्लेषण न किया जा सके। अत: विवेक जब तक अनुभूत सत्य के होने का प्रमाण नहीं जुटा पाता तब तक विज्ञान उस सत्य को अपने इलाके में प्रवेश करने नहीं देती। इस न्याय से देखें तो बुद्धि को अंतर्ज्ञान की अनुगामिनी मानना चाहिए। लेकिन आधुनिक समाज में बौद्धिक चेतना और विज्ञान का ऐसा बवंडर खड़ा कर दिया गया है कि अंतर्ज्ञान का मुद्दा पीछे चला गया। मनुष्य अपनी आत्मशक्ति से ही पहचाना जाता है। आत्म तत्व से अभिन्न रूप से जुड़े अंतर्ज्ञान के न जग पाने के कारण ही आज का मनुष्य मानसिक स्तर की विकृतियों का शिकार होकर कष्ट भोग रहा है। इस लिहाज से देखें तो अंतर्ज्ञान के विकास की शिक्षा इस युग की बहुत बड़ी माँग है।

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