चित्त के आईने में चित्तरंजन / Chiitaranjan in the Mirror of Heart

चित्त के आईने में चित्तरंजन / Chiitaranjan in the Mirror of Heart

गर्मियों की छुट्टियों से पहले मिले फुर्सत के दिन बोनस में मिले पलों की तरह थे। होली के रंग में डूबे मौसम में हमने चित्तरंजन शहर में समय बिताने का फैसला किया। पाँच दिनों का अवकाश और पहाड़ी या सागर के किनारे बसे शहरों को न चुनकर हमने चित्तरंजन को ही क्यों चुना? साथियों का यह सवाल वाजिब था। दरअसल शांतनु का बचपन इस शहर में बीता था। विवाह के बाद से आज तक चित्तरंजन में बिताए पलों की बातें उसकी यादों में सुनहरे अक्षरों में चमकते थे। इतना ही नहीं संयोग से कोई चित्तरंजन का अंजान इंसान भी मिल जाता तो इस शहर से जुड़ी खुशनुमा यादें उनके बीच सेतु बन जाती थीं। भले ही इंटरनेट में यह शहर रेल इंजन बनाने के कारखाने के लिए परिचित दिखा, लेकिन इस शहर की हवाओं में कुछ तो ऐसी बात थी कि यहाँ की बातें यहाँ वक्त गुजारने वाले लोगों की खुशनुमा यादों का हिस्सा बन जाती हैं। इस शहर की कशिश, उसकी संस्कृति और प्राकृतिक अनोखेपन की बातें मैंने सुनी थीं और अब उसे महसूस करना चाहती थी। तभी अवकाश मिलते ही होली के दिन हम चित्तरंजन के लिए रवाना हुए। शांतनु में अपने बचपन की खोई यादों को ताज़ा करने की चाहत थी तो मुझमे इस शहर की कशिश को महसूस करने की चाहत। आठ वर्ष की बिटिया राशि तो पढ़ाई से पाँच दिनों की आज़ादी के खयाल से ही खुश थी। सन 1950 से पहले यहाँ दुर्गादीहि गाँव हुआ करता था। यहाँ के आदिवासियों को हटाकर भाप इंजिन बनाने वाली पहली फैक्ट्री चित्तरंजन लोकोमोटिव वर्क्स और इसमें कार्यरत लोगों के लिए चित्तरंजन शहर बना। स्वतन्त्रता सेनानी चित्तरंजन दास के नाम पर बना यह शहर दीवार से घिरा है। यह दीवार इस शहर की सीमारेखा निर्धारित करती है। इस शहर में अस्पताल, विद्यालय, महाविद्यालय, बाज़ार, सिनेमा घर, लाइब्रेरी और मनोरंजन के तमाम साधन हासिल हैं। यहाँ नदी, पहाड़, बांध, बाग-बागीचे एक साथ देखे जा सकते हैं। रूखेपन से मुक्त इस योजनाबद्ध शहर की बातें ही मुझमें इसे देखने की चाहत को बढ़ा चुकी थीं।

कमिश्नर ऑफ रेलवे सेफ़्टी श्री पी0के0 आचार्या के सौजन्य से रेलवे अफसर क्लब की मेज़बानी में हम चित्तरंजन स्टेशन से इस शहर की ओर रवाना हुये। चित्तरंजन के प्रवेश द्वार पर बना भाप इंजन का मॉडल ही इस बात का एहसास दिला रहा था कि द्वार के उस पार एक खूबसूरत सजीला शहर बसता है। शहर के चौड़े काले चिकने रास्तों के साथ ही यहाँ की हरीतिमा से निखरे प्राकृतिक सौन्दर्य ने सबसे पहले मेरा ध्यान खींचा। अफसर क्लब से होती हुई हमारी गाड़ी चित्तरंजन भवन कैम्पस पर आकार रुकी। कैम्पस का चौड़ा पक्का दोनों ओर सफ़ेद बार्डर खिंचा रास्ता, एक ही आकार और कद में छटे देवदारू के पेड़, विशाल हरा लॉन उसके चारों ओर गेरू से रंगे ईंटों के बार्डर के बीच लाल मिट्टी का रास्ता और ईंटों के बगल में एक पंक्ति में लगे गेंदे के फूल से लदे पौधे प्रकृति को निरखने और खामोशी को महसूस करने का निमंत्रण दे रहे थे।

दोनों ओर गेरू और चूने से रंगे तनों वाले पेड़ों के बीच से गुजरे रास्तों पर सुबह की सैर का आनंद ही कुछ और था। ओवल ग्राउंड, देशबंधु स्टेडियम का चौक पार करके हम हिल टॉप की ओर बढ़ रहे थे। सामने बसंती इंस्टीट्यूट था। जहाँ सिनेमाघर और लाइब्रेरी एक साथ थे। यहाँ होने वाले विज्ञान की प्रदर्शनियों की बातें मैंने सुनी थी। इंस्टीट्यूट के बगल में ही एक मैदान में बड़े-बड़े यूकेलिप्टस के पेड़ दिखे। यह ईस्ट मार्केट का इलाका था। जहाँ का रास्ता कुछ हद तक खुरदरा था। इस रास्ते से हिल टॉप की ओर बढ़ते हुये फूलों से सजी हुई एक जगह दिखी। यह होर्टिकल्चर सुपरिंटेंडेंट का कार्यालय था। शांतनु की स्मृति में आज भी इस जगह पर कभी आयोजित होने वाली फूल और सब्जियों की प्रदर्शनियों के बिम्ब ताज़ा थे। उन प्रदर्शनियों से बागवानी को प्रेरित करने की संस्कृति को बढ़ावा मिलता था। अपने आँगन को पौधों से खूबसूरती से सजाने वालों को पुरस्कृत करने की रीत लोगों के सौंदर्यबोध को बढ़ावा देती थी। आज उस संस्कृति के क्षय की खबर ने शांतनू को चोट पहुंचाई। लेकिन मेरे मन के कोरे कागज में चित्तरंजन के वर्तमान की जो छवि बन रही थी उसमें यह शहर प्राकृतिक वैभव से नवाजा हुआ ही दिख रहा था। भले ही अतीत में यह शहर और भी खूबसूरत रहा हो लेकिन आज भी यहाँ जो है वह आकर्षक है। इसी के साथ यहाँ के प्राकृतिक वैभव को बरकरार रखने वाली संस्कृति को बचाने का सवाल भी मेरे मन में उमड़ रहा था। ताकि यहाँ जो कुछ भी बचा है वह महफूज रह सके।

हिल टॉप का सौन्दर्य अनोखा है। यहाँ से पूरा चित्तरंजन शहर दिखाई देता है। सफ़ेद और लाल रंग से रंगे छोटे – बड़े पत्थर इस जगह की शोभा बढ़ा रहे थे। पहाड़ी के ठीक ऊपर बनी छावनी में अजीब सी शांति थी। हल्की ठंडी हवा उस पर हमारी ध्वनि का हम तक लौट कर आना एक खूबसूरत अहसास था। छावनी की छत पर चित्तरंजन शहर के उन जगहों के नाम लिखे थे जो उस बिन्दु पर खड़े होकर दिखाई देते थे। हरे रंग के आधार पर खड़ा चाँदी के रंग का झण्डा फहराने का खंभा यह स्पष्ट करता था कि राष्ट्रीय पर्वों में यहाँ सम्मिलित होने की एक संस्कृति जिंदा है।

सुपरिकल्पित शहर चित्तरंजन में कुल पाँच बांध है। हिल टॉप पर बने पानी के रिजर्वर तक वॉटर ट्रीटमेंट प्लांट से होते हुये पानी पहुंचता है। यहीं से पूरे चित्तरंजन शहर में पानी पहुंचाया जाता है। इस व्यवस्था के साथ ही हर इलाके में एक पार्क, एक डिस्पेन्सरी और एक प्राइमरी स्कूल की व्यवस्था इस शहर के सुपरिकल्पित होने का परिचय दे रही थी। प्राकृतिक शोभा से समृद्ध इस शहर में गांधी खमार नाम से प्रसिद्ध एक जगह हुआ करती थी। जहाँ कुछ लोग गांधी दर्शन पर अमल करते हुए चरखे से सूत कातने और खेती करके आत्मनिर्भर जीवन जीने की राह पर चलते थे। प्राकृतिक शोभा के बीच सहज जीवन जीने का यह प्रयास सराहनीय था। इस जगह पर आज राजराजेश्वरी का मंदिर निर्मित हो चुका था। समय के वार से गांधी जी की बताई राह की छाप भले ही इस जगह सिमट चुकी हो लेकिन गांधी की मूर्ति बीते हुए समय का प्रतीक बनकर आज भी खड़ी है।

विशाल मैदान के बीच स्थित चित्तरंजन का काली मंदिर यहाँ धार्मिक और सांस्कृतिक कार्यक्रमों की आधारभूमि थी। शांतनु की स्मृति में बसा मंदिर आज विशाल और पहले से कहीं अधिक सुंदर आकार ले चुका था। लेकिन मंदिर के विशाल प्रांगण में नाटक या जात्रा (नाटक का एक रूप ) खेलने का रिवाज आज यहाँ की हवाओं से मिट चुका चुका था। इसी के समांतर रेलवे सुरक्षा बल द्वारा हाल ही में निर्मित शिव-पार्वती का अत्यंत आकर्षक मंदिर यहाँ की संस्कृति के नए साँचे में ढलने की सूचना दे रहा था।

चित्तरंजन के ऑफिस रोड पर बना बांध भी एक देखने लायक मंज़र था। बांध के दूसरी ओर भारत स्काउट एंड गाइड का ऑफिस और दूर तक फैला शूटिंग रेंज था। कर्नल सिंह पार्क के नाम से परिचित इस इलाके में आज इस पार्क के ध्वंसावशेष ही खड़े थे। जहाँ रख रखाव के अभाव में आज यह पार्क तकरीबन जंगली पौधों के आहोश में था वहीं चिल्ड्रेन्स पार्क और लोको पार्क यहाँ समय के साथ बने ऐसे दो खूबसूरत स्थान थे जिन पर से आँख हटा पाना मुश्किल था। एक बड़े से खुले मुंह के आकार का चिल्ड्रेन्स पार्क का प्रवेश द्वार और घड़ियाल, मशरूम और अलग-अलग जानवरों के आकार में बनी बैठने की जगह और झूले बच्चे तो क्या बड़े – बूढों को भी खुशनुमा वक्त बिताने का निमंत्रण देते थे। लोको पार्क में रखा भाप का इंजिन और टोंय ट्रेन इस जगह के विशेष आकर्षण थे।
अजय नदी चित्तरंजन शहर की प्राकृतिक सुषमा में चार चंद लगाती है। नदी के इस पार चित्तरंजन है तो उस पार झारखंड। नदी में पानी बेहद कम होने के कारण बड़े-बड़े पत्थर बाहर निकाल आयें थे। पत्थरों के बीच से अजय नदी पतली रेखा सी बह रही थी। नदी के इस रूप को देखकर यह अंदाज़ा लगा पाना मुश्किलथा कि कभी यही नदी अपने पानी के तेज़ बहाव से पुराने पुल को तोड़कर कई लोगों के प्राण ले चुकी थी। दरअसल बरसात में यह नदी उफनती हुई चलती है। लेकिन नदी के इस भरे-भरे इतराते रूप का अंदाज़ा इस मौसम में नहीं लगाया जा सकता था।
चित्तरंजन के इस सफर को कुछ खास लोगों ने और खास बना दिया। शांतनु के विद्यालय के साथी अभिरूप और प्रदीप्त से मिलकर उनमे छिपे समृद्ध कलाकारों को पहचानने का मौका मिला। चित्रकला के शिक्षक प्रदीप्त योग्य चित्रकारों की एक नयी पीढ़ी तैयार करने के काम में जुटकर कुछ संथाली विद्यार्थियों को राष्ट्रीय स्तर की प्रतियोगिताओं में भाग लेने के काबिल बनाने के काम में काफी आगे निकाल चुके थे। अभिरूप में दुर्गम जगहों पर पहुँचकर खींचे तस्वीरों को कलाकार की नज़रों से देखते हुए पेंटिंग इफेक्ट के जरिये दुर्लभ कलारूप को आकार देने का जुनून था। उस पर सफर में मिली साथी ऋतिका का होली पर निमंत्रण और उसके परिवार का अपनत्व भाव, होली में रंगों से स्वागत सरल और सहज सौन्दर्य का अहसास दिला रहा था।

अजय नदी का आकर्षण इतना दुर्निवार था कि हम अगले दिन सुबह भी सैर के लिए अजय नदी के किनारे गए। रास्ते में सुंदर पहाड़ी और शांतनु का प्राथमिक विद्यालय भी देखा। ये वे जगह थे जिनकी बातें मैंने सुनी थी। लेकिन फुर्सत से देखने का मौका आज मिल रहा था। रास्तों से गुजरते हुए ऐसे तमाम बंगले और क्वार्टर दिखे जो वहाँ रहने वालों की बागवानी के प्रति विशेष रुचि का अहसास दिला रहे थे।लेकिन ऐसे कई घर भी दिखे जहाँ सब्ज बागों और फूलों का साम्राज्य नहीं था। यह अंतर इस बात का अहसास दिला रहा था कि सचमुच इन्सानों के हाथ में जादू है। सुरुचि और खूबसूरत सजावट हमेशा पूंजी की मोहताज नहीं होती। आदमी साधारण चीजों से ही अपने घर आँगन को स्वर्ग सा बना सकता है।

अच्छे दोस्त बड़े किस्मत से मिलते हैं। दोस्तों के बीच बंधन को तिल-तिल कर तैयार करने में उस जगह की संस्कृति,जीवन शैली का बहुत बड़ा योगदान होता है। चित्तरंजन में बिताए दिनों की खुशनुमा यादें, हमारे आने की खबर सुनते ही शांतनु के दोस्तों को हमारे गेस्ट हाउस में खींच लाई। खासकर अभिरूप की आँखें चित्तरंजन को एक कलाकार और नवोन्मेषी निगाहों से देखती थीं। चित्तरंजन के हर गली कूचों को हम देख सकें इसलिए उसका विशेष आग्रह था कि हम एकदम सुबह उसकी गाड़ी से ही यहाँ के जर्रे-जर्रे को घूमकर महसूस करें। जिन राहों से शांतनु विद्यार्थी जीवन में कभी साइकिल से जाया करते थे उन्हीं पसंदीदा और मसृण राहों से खुद ड्राइव करने का आनंद और रह-रह कर पुरानी यादों के उमड़ आने की खुशी उसकी आँखों से जाहिर हो रही थी। हम उस मुकाम तक गए जहाँ से एक संथाली गाँव शुरू होता था। जहाँ शांतनु अक्सर आया करते थे। लेकिन आज वहाँ गाँव नहीं पक्के मकान थे। वक्त के साथ आए इस बदलाव से संथाली गाँव देखने की हसरत उस वक्त पूरी न हो पाई।

संथाली गाँव देखने की हसरत मन में लगातार हिलोरें ले रही थी। अभिरूप चित्तरंजन से बाहर बहुत दूर निर्जन जगहों पर अक्सर तस्वीरें खींचने जाया करते थे। एक खूबसूरत क्षण को कैमरा बंद करने के लिए कई महीनों तक एक ही जगह पर जाकर इंतजार किया करते थे। छुट्टी के दिन को इसी तरह बिताने की उनकी आदत थी। उन्हें ऐसे संथाली गाँव का पता था जो अब भी शहरी छाप से मुक्त थे। फिर क्या था, उनके निर्देशन में हम बोडमा पहाड़ की ओर चल पड़े। पहाड़ी के करीब पत्थरों को एक विशेष रूप में रखा हुआ देखकर हम रुके। अभिरूप ने बताया कि ये पत्थर शुरू से ऐसे ही खड़े हैं। लगभग अट्ठाईस सालों से अभिरूप यहाँ लगातार आ रहें हैं। यहाँ महुए के पेड़ों की भरमार है। ताल के पेड़ के पत्ते एक दूसरे से घिसकर मर्मर की ध्वनि पैदा कर रहे थे।उस पर सामने खड़ा बोडमा पहाड़ और खूबसूरत लगता था। जो पहाड़ पहले लगभग वृक्षहीन था आज उसमें कई छोटे-छोटे वृक्षों को देखकर अभिरूप ने इस बदलाव की सूचना दी। वहाँ से हम संथाली गाँव चंद्रदीपा की ओर बढ़ रहे थे। दूर से दीवार पर चित्रकारी किए हुए मिट्टी के घर दिखे। दीवारों पर बने चित्र लोगों की सौन्दर्य चेतना का अहसास दिला रहे थे। संथालियों के घर की यह खासियत है कि प्रवेश द्वार के बाद ही ग्वाल घर होता है। फिर मुर्गी, सूअर, बकरियों का घर, आँगन में मिट्टी का बना चूल्हा और धान पर भाप देने के लिए बना मिट्टी का एक दूसरे किस्म का चूल्हा भी। सीतामणि मुरमु के घर घुसते ही भात के माड़ की सी गंध आयी। यह सूखे महुए के फूल से निकले फलों की गंध थी। किसमिस से दिखने वाले इन फलों को सुखाकर महुए का नशीला रस बनता है। हर साल जनवरी में संथाली अपने घर की फीकी हो गयी दीवारों के चित्रों में रंग भरते हैं। किसी के दीवार पर मोर बना था तो किसी के दीवार पर लाल और काली रेखाओं का डिजाइन।

अब हम चंद्रदीपा से लादना गाँव की ओर बढ़ रहे थे। इस गाँव के आखरी प्रांत में बराकर नदी खत्म होती है। यह माइथन का पिछला हिस्सा है। रास्ते में कीर्तन के लिए शामियाना लगाए जाने के कारण हमारी गाड़ी लादना नहीं पहुँच पाई। हम पहाड़ के ऐश्वर्य को चार चंद लगाती और उसके कदमों को छूती नदी के किनारे बैठकर सूर्यास्त देखना चाहते थे। अभिरूप ने भी पहाड़ के दूसरी ओर से ऐसा ही दृश्य दिखाने की बात ठान ली और हम बोडमा पहाड़ को पीछे छोड़कर किलही पहाड़ की ओर बढ़ने लगे । उसी रास्ते से हम बराकार नदी के किनारे पहुंचे जो माइथन का एक और पिछला हिस्सा था। जहाँ बांध बनाकर नदी को रोक दिया गया था । यहाँ पहले गाँव हुआ करता था। गाँव को वहाँ से हटाकर ऊपर बसा दिया गया था। सूर्यास्त से लगभग एक घंटा पहले हम यहाँ पहुँच चुके थे। दूर खड़े पहाड़ और नदी के प्राकृतिक ऐश्वर्य के बीच हमने सूरज को लालिमा बिखेरते हुए डूबते देखा। वक्त के साथ नदी में सूरज का प्रतिबिंब लंबा होता जा रहा था। हम उस दृश्य को एकटक देख रहे थे। और अभिरूप संथाली बच्चों से लगातार बात करते हुए उनकी तस्वीरें खींच रहे थे। उनका विश्वास आजकल इस बात पर टिका हुआ था कि जिंदगी के छोटे-छोटे पलों की कहानी जीवन की लंबी कहानी से कहीं ज्यादा जीवंत होती है। इन पलों की कहानी को तस्वीरों के जरिये अभिव्यक्त किया जा सकता है। वह भी कुछ ही घंटों में खींची तस्वीरों से, किसी बात से पैदा हुई अनुभूति से चहरे पर उभर आई रेखाओं के जरिये। यह सिरीज़ फोटोग्राफी है। अभिरूप उन संथाली बच्चों के उन्हीं पलों को पकड़ने की कोशिश कर रहे थे।

पाँच दिन नजाने कैसे बीत गए और चित्तरंजन से रवाना होने का समय हो गया। चित्तरंजन शहर से बाहर निकलते ही हिंदुस्तान केब्ल्स द्वारा बसाया गया वह शहर दिखा जो अब उजाड़ चुका था। टेलीफ़ोन के तार बनाने वाली यह कंपनी मोबाईल की संस्कृति के आने के साथ ही उजड़ने लगी थी। वक्त की तेज़ धार में बहकर हिंदुस्तान केब्ल्स का वह शहर आज उजाड़ बस्ती बन चुका था। शांतनु ने ड्राइवर से उस उजड़े शहर का चक्कर लगाते हुए जाने का आग्रह किया। उसकी आँखें आज उन क्वार्टरों का उजड़ा हुआ रूप देख रहीं थीं जिसे कभी उसने आबाद देखा था। जहाँ रहने वाले मित्रों के घर कभी उसका आना जाना था। कभी बेहद सजा हुआ जी0एम0 का बंगला आज जंगली पेड़ों के कब्जे में था। यह कंपनी बदलते वक्त के साथ खुद को नए साँचे में ढाल नहीं पाई थी। इसका परिणाम हमारी आँखों के सामने था।

पक्के रास्ते को छोड़कर नदी के बगल से गुजरने वाले कच्चे रास्ते से हमारी गाड़ी माइथन पहुंची। ड्राइवर का ही विशेष आग्रह था कि हम इस रास्ते के सौन्दर्य को महसूस करें। आसनसोल पहुँचते ही रेलवे अफसर श्री एच0 के0 मीणा की सहृदयता और स्वागत के अनोखे अंदाज़ ने इस सफर में हमें एक और खुशी का पल भेंट किया। चित्तरंजन से हम अपनी आँखें और मन को खुशियों से भरकर लौट रहे थे। यही खुशियाँ व्यस्त ज़िंदगी में मन को उपयुक्त रसद देतीं हैं।

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