देवभूमि उत्तराखंड में बीते चंद दिन / Few Days Spent in ’Devbhoomi’ (Land of Gods) Uttarakhand

देवभूमि उत्तराखंड में बीते चंद दिन / Few Days Spent in ’Devbhoomi’ (Land of Gods) Uttarakhand

कुछ सालों से दुर्गापूजा की छुट्टियों में शहर के शोर शराबे से कहीं दूर जा कर समय बिताने की ख्वाहिशें मन को घेरने लगी थीं। दुर्गापूजा में बंगाल के विशिष्ट वाद्ययंत्र ’ढाक’ की आवाज आजकल कहीं खो सी गई है। पॉप और रैप संगीत की आवाज दिलो दिमाग पर हथौड़े की मार जैसी महसूस होती है। दुर्गा पूजा के कुछ दिन धरती पर माँ दुर्गा के आगमन के दिन माने जाते हैं। कभी-कभी यह महसूस होता है कि इतने शोर शराबे, खान पान की दुकानों की भीड़ और लाउड स्वीकरों की आवाजों के बीच क्या वाकई माँ दुर्गा का यहाँ कुछ पल के लिए भी ठहरपाना संभव है? पंडालों में माँ की मूर्ति है और लाउड स्पीकर पर फूहड़ संगीत बज रहे हैं। सांस्कृतिक स्खलन के ऐसे दृश्यों का साक्षी बनने से पहले ही मन और आँखें प्रकृति के किसी ऐसे स्थान पर पहुँच जाना चाहती थीं जहाँ शान्तिपूर्ण वातावरण में अपनी सृजन शक्ति को पर खोलने का मौका दिया जा सके। अपनी ख्वाहिशों को पंख देने के लिए हमने इस बार देवभूमि उत्तराखंड जाने का निर्णय लिया। इस बार मेरे साथ शान्तनु और बेटी राशि के अलावा शान्तनुके दोस्त प्रणव, उनकी पत्नी मैरी और बेटा प्रमीत भी था। हम सबके सोच की समानता ने हमें इस सफर में एक साथ बाँध दिया था। हिमालय के पर्वत श्रृंखला के ऊँचे पहाड़, पहाड़ों पर जमी बर्फ की श्वेत धवल आभा और उस पर देवभूमि की हवाओं में घुला अपना रंग जैसे हमें बरबस ही अपनी खींच रहा था। नैनीताल, रानीखेत, कौसानी, मुँशीयारी, अल्मोड़ा का यह सफर मेरे जीवन का अब तक का सबसे लम्बा सफर था।

उत्तर प्रदेश से उसके पहाड़ी इलाकों को अलग करके उत्तराखंड राज्य बना है। इसका जिक्र प्राचीन ग्रंथों में केदार खंड और मानस खंड के सम्मिलित क्षेत्र के लिए किया गया है। प्राचीन काल से ही इसके ऊँचे शिखर और इसकी घाटियों को देवी देवताओं का निवास स्थल माना जाता रहा है। ऐसा माना जाता है कि व्यास मुनि ने महाभारत की रचना यहीं पर की थी। और पांडवों ने भी इसी इलाके में अपना बसेरा बनाया था। सम्राट अशोक के कलसी के अभिलेख से यह भी पता चलता है कि यहाँ की भूमि में बौद्ध धर्म ने भी कदम रखे। मन में बसी यहाँ की शान्तिपूर्ण और ऐश्वर्यमयी छवि ही हमें मानो देवी के पृथ्वी पर आगमन के चंद दिनों को गहराई से महसूस करने का निमंत्रण दे रही थी।

लालकुआँ स्टेशन पहुँचकर सड़क मार्ग से हमारा नैनीताल जाने का सफर शुरू हुआ। पहाड़ के पदतल पर हरियाली के बीच खड़े छोटे-छोटे मकानों ने सबसे पहले मेरा ध्यान खींचा। हरियाली और ताज़ी हवा के बीच बहती चंचल गौला नदी का सौंदर्य मन को गहराई से छू रहा था। हमें भीमताल और नौकुचिया ताल से होते हुए नैनीताल पहुँचना था। माना जाता है कि भीम ने अपने गदे के प्रहार से भीमताल की रचना की थी। नौकुचिया ताल नौ कोने वाला ताल है। माना जाता है कि इस ताल के नौ कोनों जिसे एक साथ दिख जाएँ वह अत्यंत सौभाग्यशाली होता है। पहाड़ से घिरी झील का दृश्य आँखों को ठंडक दे रहा था।नैनीताल में नैनी झील के किनारे स्थित – ओक रिज होटल में रात्रि निवास का कार्यक्रम तय था। होटल की बड़ी काँच की खिड़की से नैनी झील का नजारा मन की गहराइयों को छू रहा था। झील के उस पार के पहाड़ पर बने घर खिलौनों के घर जैसे दिख रहे थे। हरियाली के बीच बसे त्रिकोणाकार छतों वाले घर किसी चित्रकार द्वारा बनाए गए चित्र जैसे लग रहे थे। नैनी झील में तैरती मछलियों के झुंड के पानी में डाले गए दानों को लपकने के लिए बार-बार किनारे की ओर आने की प्रक्रिया को खड़े-खड़े निरखना एक अद्भुत अनुभव था।

नैनी झील के एक छोर में नैना देवी का मंदिर स्थित है। माँ पार्वती के नैन यहीं पर गिरे थे। झील के एक छोर से मन्दिर प्रांगण तक नाव जाती है। जल पथ से नौका विहार करते हुए पहाड़ों से घिरे नैना देवी मंदिर के प्रांगण तक पहुँचने का अनुभव किसी के लिए भी यादगार सफर बन जायेगा। उस पर मंदिर का अनोखा वातावरण भी मन की गहराइयों को छू लेता है। पहाड़ से नैनी झील को देखना और नैनी झील पर नौका विहार करते हुए पहाड़ को देखना स्वर्ग से धरती को और धरती से स्वर्ग को देखने के बराबर था। यह जगह ऐसी थी जहाँ धरती और स्वर्ग मानो मिल गए थे।मंदिर दर्शन के बाद हम नैनी झील को घेर कर खड़े पहाड़ के शिखर की ओर निकल पड़े थे। शिखर पर लोग हिमालय दर्शन के लिए आते हैं। आसमान साफ हो तो बर्फ से ढ़की हिमालय की चोटियाँ नज़र आती हैं। इसी जगह पर कुमायूँ मंडल विकास निगम का एक होटल है जो कभी ब्रिटिशों का बांग्ला हुआ करता था। इसी जगह पर दो सौ वर्ष पुराने जिंको विलोबा का वृक्ष दिखा। इस वृक्ष का हर अंग औषधि बनाने के काम आता है। इस वृक्ष की यह खासियत है कि इसके नर और मादा वृक्ष एक ही जगह पर मिलते हैं।नैनी झील ऊपर से आम के आकार की दिख रही थी। ऊपर से झील की पानी का रंग भी नीली आभा लिए हुए दिख रहा था। पहाड़ियों से घिरी इस नीली झील को देखना मानो कहीं स्वर्ग से एक टुकड़ा आसमान देखने के बराबर था। सिर के ऊपर दिखने वाला आसमान मानो आज जमीन पर उतर आया था।

हिमालय कई महान ऋषियों का आश्रय स्थल रहा है। यहाँ के वातावरण की अद्भुत शांति ने महापुरुषों को ईश्वरीय अनुभूति करवाई थी। शिवत्व यहां कण-कण में बसा है। ऋषियों ने पहाड़ों की गोद में स्वयंभू शिवलिंग (अपने आप बनने वाला शिवलिंग की आकृति का पत्थर) पाकर शिव का ध्यान लगाकर इन्द्रियों पर विजय हासिल करते हुए परम शान्ति का अनुभव किया। ऐसा ही एक स्थान है हनुमान गढ़ी। नीब करौरी बाबा द्वारा खोजा गया यह स्थान कदम रखते ही मन को शान्त करने की उसकी शक्ति का एहसास दिला देता है। निस्तब्धता की भी एक ध्वनि होनी है। इस ध्वनि का एहसास मुझे इस जगह पर आकर हुआ। ठीक यही एहसास मुझे एक बार फिर कैंची स्थित नीब करौरी बाबा के आश्रम में हुआ। पहाड़ की गोद में बसे इस आश्रम से सटकर शिप्रा नदी बह रही है। छोटे से एक पुल से शिप्रा नदी को पार करते हुए नीब करौरी बाबा के कैंची धाम में पहुँचकर मन में अद्भुत शान्ति फैल गई थी।

उत्तराखण्ड अकेला एक ऐसा राज्य है जिसके दो राजभवन हैं। एक राजभवन नैनीताल में स्थित है। इस भवन की बनावट स्कॉटिश महल की-सी है। सन् 1899 में बनी इस इमारत के निर्माण में ईंट, सीमेंट और बालू की जगह चूना, गुड़ और दाल का प्रयोग किया गया है। उस युग में इमारत बनाने के लिए इन्हीं चीजों का इस्तेमाल होता था। यह यूरोपीय लहजे में गॉथिक वास्तुकला के आधार पर बनी इमारत है। 205 एकड़ तक फैले इस इमारत के प्रांगण में गॉल्फ कोर्स, स्वर्गीय उपवन, स्वीमिंग पुल स्थित है। यह भारत का एक ऐसा राजभवन है जिसके दरवाजे पर्यटकों के लिए खुले हैं। इस आलीशान इमारत की भीतरी सजावट भी आलीशान है। ब्रिटिश काल के असबाब, बेल्जियम कांच से बने आईने से लेकर छाता रखने के स्टैण्ड तक एक राजशाही ठाट फैली हुई थी।

नैनीताल से लगभग ढाई घंटे का सफर तय करके हम रानीखेत पहुँचे। रानीखेत में महातपा ऋषि के अवतार माने जाने वाले हेडाखान के आश्रम के पास ही कुमायूँ मंडल विकास निगम के हिमाद्री टूरिस्ट रेस्ट हाउस में हमें रहना था। इस इलाके के जंगल का एक अलग सौंदर्य है। यहाँ पेरुल के वृक्षों का घनत्व जंगल को अंधकार में नहीं डुबोता। अपने ही फल के बीज से उगने वाले पेरूल के वृक्षों के बीच की हरी घास साफ दिखाई देती है। इस जंगल को देखकर ऐसा लगता है मानो किसी ने योजनाबद्ध ढंग से इन्हें लगाया हो।

रानीखेत का सफर विश्वविद्यालय के दोस्त मिथिलेश और मेनका की मौजूदगी के कारण यादगर सफर बन कर रह गया। रेस्ट हाउस पहुँचते ही मुझे सूचना मिली कि मिथिलेश और मेनका कुछ घंटे पहले ही हमारा इंतजार करके लौट गये थे। इस सूचना के मिलते ही मैंने मिथिलेश को मेरे पहुँचने की सूचना दी और कुछ ही मिनटों में मिथिलेश और मेनका दोनों मेरे इस दो दिनों के डेरे में पहुँचे। बरसों पुरानी यादें उनसे मिलते ही ताजा हो गईं। उम्र ढ़लने के साथ पुराने दोस्ताने रिश्ते और भी गहरे हो जाते हैं। इस बात का एहसास उनसे मिलने के साथ ही हुआ। वे दोनों अगले दिन के रात्रि भोज का न्यौता देकर गए। सूने पहाड़ों में अचानक अपनों से बरसों बाद मिलने का एहसास कितना खूबसूरत होता है, यह मैंने महसूस किया। रानीखेत में दूसरे दिन हम बिनसर महादेव मंदिर पहुँचे। गिरि संप्रदाय का यह मंदिर पेरूल के जंगल के बीच स्थित है। दुर्गा अष्टमी का दिन ऐसे एक मन्दिर में बिताना सौभाग्य की बात थी। एक ओर मंदिर के वातावरण की शान्ति और दूसरी और पेरूल के जंगल का सौंदर्य जैसे मन में रिस रहा था।

भारतीय सेना में कुमाऊँ रेजीमेंट के सैनिकों का एक खास स्थान है। दो सौ वर्ष पुराने कुमाऊँ रेजीमेंट के सैनिकों ने हमेशा से युद्ध के समय दिलेरी और साहस का परिचय दिया है। कुमाऊँ रेजीमेंट की देख-रेख में स्थित युद्ध सामग्रियों और तथ्यों से संबंधित संग्रहालय में इसके प्रमाण सुरक्षित हैं। सेना के सेवानिवृत्त कप्तान ने इस संग्रहालय में रखे सामानों से जुड़े इतिहास को बड़ी खूबसूरती से व्याख्यायित किया। उन सामग्रियों को देखते हुए जहाँ एक ओर कुमाऊँ रेजीमेंट के सैनिकों पर गर्व हो रहा था वहीं दूसरी ओर इस बात का भी एहसास हो रहा था कि आजादी से पहले ब्रिटिशों की सेना का अंग बनकर, आजादी के बाद भारतीय सेना का अंग बनकर, युद्ध में शहीद होकर या फिर जीत का सेहरा पहनकर इन सैनिकों ने जीवन में कैसे अनुभव इकट्ठे किए होंगे? उन अनुभवों में दर्द, निर्ममता, अपनों से दूरियों का पूरा का पूरा काफिला होगा। कितना अच्छा होता अगर विश्व के तमाम देश शान्ति या अमन रखने के लिए दोस्ताना रिश्ते रखते और सैनिकों की यह विपुल ऊर्जा देश को उन्नत बनाने के काम में ही खर्च हो पाती। सैनिकों की ऊर्जा का ऐसा प्रयोग मुझे रानीखेत के मनोकामनेश्वरी मन्दिर और गुरुद्वारे में दिखा।
रात्रिभोज के लिए मिथिलेश और मेनका के घर निमंत्रण था। उनके ही कारण जी.डी. बिड़ला विद्यालय का परिसर देखने का मौका मिला। संथ्या के वक्त उनके घर पहुँचते ही अपनत्व का एहसास हमें घेरने लगा था। उसी विद्यालय की एक शिक्षिका और शिक्षक भी हमारा साथ देने वहाँ मौजूद थे। पुरानी यादों को ताज़ा करने वाली बातों और हँसी ठहाकों के बीच कब संध्या से रात हो गई पता ही नहीं चला। रात्रि भोज को अपनत्व ने और भी स्वादिष्ट बना दिया था। लौटते वक्त परिसर में मौजूद तमाम खास स्थलों से हमारा परिचय करवाते हुए मिथिलेश और मेनका हमें गेस्ट हाउस तक छोड़ने आए। अगले दिन हमें कौसानी के लिए निकलना था। मिथिलेश-मेनका के घर अगले दिन नवमी की कुमारी पूजा थी। पूजा की तमाम व्यस्तताओं के बीच भी मिथिलेश अगले दिन हमारे साथ गॉल्फ क्लब चलने की इ्च्छा जाहिर करके गए।

रानीखेत के जंगल का सौंदर्य ही अलग था। इस सौंदर्य को और गहराई से महसूस करने मैं अपने परिवार के साथ सुबह की सैर पर निकल पड़ी। जी.डी. बिड़ला विद्यालय के परिसर से दो किलोमीटर की दूरी पर दुर्गा का मंदिर था। मिथिलेश से सुना था कि यहाँ उनका अक्सर जाना होता है। पहाड़ की गोद में पेरूल वृक्षों के वन के बीच बसे मंदिर को देखने की बहुत चाहत थी। सुबह हम इसी मन्दिर की ओर चल पड़े। सर्पीले मोड़ों वाला रास्ता, पेरूल वृक्षों के खूबसूरत जंगल का सौंदर्य और पक्षियों का कलरव एक स्वर्गीय वातावरण तैयार कर रहा था। पहाड़ की गोद में बसे हरड़ा देवी मंदिर (दुर्गा मंदिर) पहुँचते ही पंडित जी ने अपनत्व के साथ भीतर आकर टीका लगाने और प्रसाद लेकर जाने का आग्रह किया। मन्दिर के वातावरण में अद्भुत शांति थी। उसी दिन हमें कौसानी के लिए निकलना था। इसलिए वहाँ थोड़ी देर और रुकने की इच्छा होने के बावजूद भी वहाँ से निकलना पड़ा।रानीखेत से कौसानी जाने का पल हाज़िर था। मिथिलेश भी गॉल्फ क्लब तक हमारा साथ देने के लिए पहुँच चुका था। दूर तक फैले हरे मैदान में बातें करते हुए चलना और छाँव देखकर बैठना एक खूबसूरत अनुभव था। मिथिलेश को अलविदा कहने का समय आ गया था। इस सफर के स्मृति चिह्न के रूप में उसके द्वारा दिए गए पेरूल वृक्ष का फल साथ लेकर हम कालिका देवी मन्दिर की ओर रवाना हुए। बरसों पुराने इस माँ दुर्गा और काली माँ के मन्दिर के वातावरण में अजीब-सी शान्ति थी। यह हजार साल पुराना सिद्ध पीठ है। सिद्ध पीठ अर्थात वह जगह जहाँ किसी ने तपस्या के जरिये सिद्धी हासिल की थी। यहाँ दोनों मंदिर में पुरोहित की भूमिका स्त्रियाँ निभा रही थीं। मंदिर में एक माता जी की भी मूर्ति थी। संभवत: उन्हीं ने इस स्थान पर सिद्धि हासिल की थी। उनकी तपस्या का फल ही मानो हवाओं में घुलकर वातावरण को शान्तिमय बना रहा था।

कौसानी जाने का सफर शुरू हो चुका था। इस सफर पर कुछ खूबसूरत नजारों ने मन को गहराई से छू लिया। गगस नदी की चंचल धारा और लोद सोमेश्वर की घाटी का सौंदर्य भुलाए नहीं भूला जा सकता था। दोनों ओर पहाड़ से घिरी समतल खेती की जमीन जिस पर धान के फसल की कटाई हो रही थी और पास ही में बहती चंचल पहाड़ी नदी की शोभा ही निराली थी। खूबसूरत नज़ारों का आनंद उठाते हुए हम कौसानी बेस्ट इन आ पहुँचे। इस जगह की पुराने बंगले के लहजे की सजावट और सलीके से लगाए गए पौधों के सौंदर्य ने सबसे पहले हमारा ध्यान खींचा। लेकिन कमरे में पहुँचकर वहाँ से बाहर का नज़ारा देखते ही मानो मन किसी दूसरी दुनिया में ही खो गया। घाटी के समतल में बसे घर और पहाड़ एक साथ दिख रहे थे। समतल पर सुनहरी धूप थी तो पहाड़ों पर मेघ की छाया। ऐसा अद्भुत नज़ारा मैंने पहले कभी नहीं देखा। मन इस गेस्ट हाउस के बरामदे में बैठकर घंटों इस सौंदर्य को निरखना चाहता था। लेकिन समय की कमी का ध्यान रखते हुए सुमित्रानंदन पंत संग्रहालय और अनासक्ति आश्रम के लिए रवाना होना पड़ा।

भारतीय ज्ञानपीठ सम्मान से नवाज़े गए हिन्दी के कवि सुमित्रानंदन पंत के जन्म-स्थान पर पहुँचकर मन जैसे वहाँ की प्राकृतिक शोभा में खो ही गया। कौसानी स्थित उनके जन्मस्थान पर आये बगैर इस बात को गहराई से महसूस ही नहीं किया जा सकता कि उनकी रचनाओं में प्रकृति को खास स्थान क्यों मिला। केवल छायावाद के कवि होने के नाते उनकी कविताओं में प्रकृति का महत्वपूर्ण स्थान है, इस बात पर यहाँ आने के बाद विश्वास करना मुश्किल है। इस संग्रहालय की देखरेख का दायित्व उत्तराखंड का संस्कृति विभाग निभा रहा है। संग्रहालय में आने वाले लोगों को काण्डपाल जी बड़े अपनेपन के साथ पंत जी के जीवन से जुड़ी तस्वीरें दिखाते हैं। उन्होंने हमें पंत जी का पुस्तकालय दिखाया। इस पुस्तकालय की खिड़की से पहाड़ों का दृश्य दिखता है। यहाँ आकर महसूस हुआ कि ऐश्वर्यमयी प्रकृति की गोद में पलने बढ़ने वाले इस कवि को प्रकृति से इतना प्रेम क्यों था?

कौसानी में सन् 1929 में गांधीजी सर्व भारत की यात्रा पर निकलकर विश्राम लेने रुके थे। यहाँ बर्फ से ढँकी त्रिशूल, नंदा देवी और अन्य कई पर्वतों की चोटियाँ देखकर वे मुग्ध हो गए। और यहाँ चौदह दिनों तक रुके। इस जगह को उन्होंने ’भारत का स्वीट्जरलैंड’ कहा। जहाँ गांधीजी रुके थे उसी जगह पर आज अनासक्ति आश्रम है। यहाँ गाँधी जी के जीवन और स्वतंत्रता संग्राम में उनकी भूमिका से संबंधित तस्वीरों का संग्रहालय है। इस स्थान से दूधिया सफेद पहाड़ों की चोटियाँ देखते हुए मन नहीं भरता।ऊँची चोटियों वाली बर्फ से ढँकी दूधिया पर्वत श्रृंखला का दृश्य देख पाना सौभाग्य की बात है। जब हम कौसानी पहुँचे तब यह दृश्य मेघों के पीछे कहीं छिपा था। और हम ईश्वर से अगले दिन सुबह इन श्रृंखलाओं को मेघमुक्त कर दने की प्रार्थना कर रहे थे। पता ही नहीं चला कि कैसे समय बीत गया। संध्या होते ही घाटी में स्थित घरों की रोशनी टिमटिमाने लगी। गेस्ट हाउस से यह नजारा ऐसा दिख रहा था मानो जमीन पर तारे टिमटिमा रहे हों। मैं घंटों इसी दृश्य को निहारती रही। रात होने से पहले दूर के पहाड़ों के आसमान पर काले बादल मँडराते हुए दिखे थे। मन में एक आस बँध गई थी कि आज अगर वहाँ जमकर बरसात हो तो कल दूधिया सफेद चोटियाँ दिख सकती हैं।

जिस सपने को मन में लेकर मैं रात को सोई थी दिन में वह सपना पूरा हो गया। सूरज निकलते ही त्रिशूल, नंदा देवी और अन्य छोटी बड़ी बर्फानी चोटियाँ चमकती हुई दिखाई दी। सूरज की रोशनी से ये चोटियाँ चाँदी की तरह चमक रही थीं। इस अद्भुत दृश्य को मैं घंटों बैठकर देखते रहना चाहती थी। लेकिन वक्त इस बात की इजाजत नहीं दे रहा था। हमें अपने अगले मुकाम मुन्सियारी तक पहुँचना था। यहाँ से लगभग आठ, नौ, घंटों का रास्ता था।

हम मुन्सियारी के लिए निकल पड़े। लेकिन बर्फ से ढँकी वह पर्वत श्रृंखला दूर तक मानो हमारे साथ चलती रही।पहाड़ी नदी की चंचलता मुझे हमेशा से आकर्षित करती रही हैं। इस सफर में भी गोमती नदी न जाने किस मोड़ से हमारे साथ चलती हुई दिखाई दी। उसी के साथ चलते-चलते हम बैजनाथ मंदिर तक पहुँच गए। गोमती नदी के किनारे बसा यह मंदिर कत्यूरी वंश के शासकों ने बारहवीं सदी में बनाया था। पत्थरों से बना यह मंदिर मानो हमें थोड़ी देर के लिए प्राचीन युग में ले गया। काले पत्थर की मूर्तियों में प्राचीनता का रंग घुला हुआ था। मंदिर की सीढ़ियाँ नीचे झील तक उतर गई थीं। यहाँ भी नैनी झील की तरह ही मछलियाँ राजी खुशी से रहती हैं। यहाँ आने वाले उनको खाना खिलाते हैं। मंदिर के प्रांगण से बर्फीले पहाड़ की चोटियाँ दिख रही थीं। पूरे वातावरण से अद्भुत सौंदर्य टपक रहा था।बैजनाथ मंदिर को पीछे छोड़कर अब हम मुन्सियारी की तरफ बढ़ रहे थे। बैजनाथ में जाकर गोमती और सरयू नदी का संगम नज़र आया। यहाँ से गोमती को पीछे छोड़ते हुए हम सरयू नदी के साथ चल पड़े इस नदी के जल का रंग हल्का हरा है। चपलता के साथ यह नदी हमारे साथ दूर तक चली। मुन्सियारी तक का सफर बहुत लम्बा सफर था। कभी हम किसी पहाड़ के ऊपर चढ़ रहे थे तो कभी दूसरे पहाड़ में जाने के लिए नीचे की ओर आ रहे थे। यूँ ही चलते-चलते मैंने देखा कि अब राम गंगा नदी हमारे साथ चल रही है। इसी सफर में कपकोर्ट पहुँचकर एक चेकपोस्ट से हम गुजरे इस चेकपोस्ट पर वन विभाग का साइन बोर्ड लगा था। यही वह रास्ता था जहाँ से पिंडारी ग्लेशियर की ओर ट्रेकिंग के लिए जाया जाता है। यहाँ खड़े दो व्यक्ति ने हमारी गाड़ी रोककर रेजिस्ट्रेशन करवाने के लिए पैसे माँगे। जब उनसे रेजिस्ट्रेशन करवाने का कारण पूछा गया और यह भी कहा गया कि हम ट्रेकिंग के लिए नहीं जा रहे तब भी वे लम्बे समय तक तर्क करते रहे। उनके पास न वाजिब कागज था और न ही वाजिब तर्क। ट्रेकिंग करने वाले और पर्यटक दोनों ही इस रास्ते से गुजर रहे थे और ड्राइवर के अनुसार कुछ दिनों पहले भी यहाँ रेजिस्ट्रेशन की कोई गुंजाइश नहीं थी। संभवत: रास्ते की खासियत को देखते हुए इस इलाके के उन व्यक्तियों ने आमदनी का रास्ता खोज लिया था। इस घटना के बाद मेरे मन में अचानक ही यह ख्याल आया कि देवभूमि कहे जाने वाले राज्य में यदि ऐसी वारदातें होंगी तो इंसानियत बौनी होती रहेगी।

मुन्सियारी पहुँचने तक मौसम खराब हो चुका था। आसमान में बादल थे और छिटपुट बारिश हो रही थी। ऐसे मौसम में हम मुन्सियारी में विजय माउन्ट व्यू पहुँचे। यहाँ से बर्फ से ढ़ँकी पंचचूली की चोटियाँ साफ दिखाई देती हैं। लेकिन मौसम खराब होने के कारण बादल हमारे साथ आँख मिचौली खेलते रहे थे। अगले दिन सुबह हम नन्दा देवी मन्दिर गए। हम जानते थे कि पंचचूली की पृष्ठभूमि में यह मंदिर बेहद खूबसूरत दिखता है। लेकिन वहाँ पहुँचकर भी मायूसी ही हाथ लगी। बादलों ने मानो पंचचूली की चोटियों को ढ़ँककर रखने का निश्चय कर रखा था। और प्रकृति के सामने हम बेबस थे। उस दिन रात को जमकर बरसात हुई और सुबह पंचचूली की बर्फ से ढ़ँकी चोटियाँ सूरज की किरणों के पड़ते ही चाँदी की तरह चमकने लगी। उसी दिन हमें मुन्सियारी से कसार देवी के लिए रवाना होना था। रवाना होने से पहले पंचचूली की चोटियों को देखना ईश्वर के दर्शन करने के बराबर था। मैं संतुष्ट थी कि प्रकृति ने हमें मायूस नहीं किया। हम कसार देवी के लिए रवाना हो चुके थे।रास्ते में ही हम मुन्सियारी के कालामुनि टॉप पर उतरे। कालामुनि ने यहाँ साधना की थी। इस जगह से पंचचूली की चोटियाँ साफ दिखाई दे रही थीं। जैसे-जैसे हम कसार देवी की ओर बढ़ते रहे वैसे-वैसे पंचचूली की चोटियाँ पीछे छूटती गईं।

पहाड़ी गाँव में स्थित कसार देवी मंदिर दो हजार वर्ष पुराना है। यह क्षेत्र पाईन और देवदारू का घर है। यहाँ से हिमालय की बंदरपूछ चोटी दिखाई देती है। सन् 1890 में स्वामी विवेकानन्द को यहाँ गहन आध्यात्मिक अनुभूति हुई थी। अपनी खासियत के कारण यह क्षेत्र कई विदेशियों और भारतीयों को आकर्षित करता रहा है।अल्फ्रेड सोरनसेन (शून्यता बाबा), अर्नस्ट हॉफमैन (जो बाद में लामा गोविन्दा कहलाया) ने यहाँ साधना की। इस इलाके ने हिप्पी आंदोलनकारियों को भी पनाह दी है। माँ आनंदमयी, मनोवैज्ञानिक तिमोथी लियरी, बॉब डायलन, जॉर्ज हैरीसन, कैट स्टीवेन्स, पाश्चात्य बौद्ध राबर्ट थुरमन, लेखक डी.एच. लारेंस ने भी इस क्षेत्र में समय बिताया। कसार देवी मंदिर विशाल भू चुम्बकीय क्षेत्र में स्थित होने के कारण नासा के वैज्ञानिकों के लिए खास हो उठा है। यह मंदिर बैन एलेन बेल्ट के अंतर्गत आता है। इस, बेल्ट के निर्मित होने के कारणों पर नासा शोध कर रहा है। विश्व में ऐसा उच्च भू चुम्बकीय क्षेत्र पेरू के माचू पिच्चू और इंग्लैण्ड केस्टोन हेन्ज में मिलता है। कसार देवी पहुँचने के साथ ही इस जगह कावैशिष्ट्य हमें आकर्षित करने लगा था। आँखें तो वही पहाड़ और वृक्ष देख रही थीं पर मन न जाने क्यों मंत्रमुग्ध हो गया था। यहाँ हम न्यू डोलमा में ठहरे थे। बौद्ध दम्पति का यह गेस्ट हाउस बड़ी खूबसूरत जगह पर स्थित है।

आसमान में मेघों का साया था। बर्फ से ढ़ँकी हिमालय की चोटियाँ नहीं दिख रही थीं लेकिन फिर भी मन मायूस नहीं था। एक अजीब-सी शक्ति मानो दिलों को बाँधे हुए थी।न्यू डोलमा गेस्ट हाउस के मालिक से पता चला कि बरसों पहले थोड़ा आगे चलकर पहाड़ के ऊपरी हिस्से में एक ब्रिटिश बंगला हुआ करता था। ब्रिटिशों से हस्तांतरित होते हुए यह एक ऑस्ट्रेलियन परिवार के हाथों में आया। आखिरकार यह परिवार गोविंद लामा के हाथों यह सम्पत्ति सौंपकर चला गया। बंगले से थोड़ा नीचे की ओर बौद्ध परिवार रहते हैं। वहाँ से लगभग 400 मीटर नीचे से कोसी नहीं बहती हैं। उन्हीं से पता चला कि सामने एक बौद्ध मोनास्ट्री भी है।

अगले दिन कसार देवी मंदिर के साथ ही हमने इन जगहों को भी देखने का निश्चय किया। अगले दिन सुबह होते ही हम कसार देवी मंदिर पहुँचने के लिए चढ़ाई चढ़ने लगे। इस गेस्ट हाउस से मंदिर पास ही था। और चढ़ाई भी थोड़ी-सी ही थी। मंदिर परिसर में कदम रखते ही मन शान्ति से भर गया। यहाँ की हवा में कुछ अलग बात थी। चोटी के करीब पहाड़ की ढलान पर खुला प्रांगण, प्रांगण में बैठने के लिए पक्की जगह और देवी माँ का छोटा-सा मंदिर जहाँ एक गुफा में माता की संगमरमर से बनी मूर्ति है। इस मंदिर से होते हुए सीढ़ियाँ ऊपर की ओर चली गई हैं। सीढ़ियाँ चढ़ते हुए हम शिव मंदिर तक पहुँचे। एक शिलालेख के अनुसार इस शिव मंदिर की स्थापना छठीं शती में दक्षिण भारत बेतिला के पुत्र रुद्र ने की थी। 2000 वर्ष पुराने इस मन्दिर का जिक्र स्कंद पुराण के इस श्लोक में भी मिलता है –
कौशिकी शाल्मली मध्ये पुष्य काषाय पर्वत:।
तस्य पश्चिम भार्गेव क्षेत्र विष्णो प्रतिष्ठितम॥
मंदिर में अद्भुत शान्ति थी। इस मंदिर के ठीक सामने ध्यान के लिए एक कमरा था ध्यान घर की फर्श मिट्टी से लिपी हुई थी। एक यज्ञ कुण्ड में त्रिशूल गड़ा हुआ था और दिया जल रहा था। छोटे से इस कमरे में ध्यान के लिए आसन बिछे हुए थे। वाकई यहाँ की हवा में घुले अनोखेपन को मैंने वहाँ थोड़ी देर के लिए ही ध्यान में बैठकर अनुभव किया। एक तो वातावरण की अनोखी शान्ति ऊपर से सूरज के साथ मेघों की आँखमिचौली और मेघों का वृक्षों को छूकर बहने की घटना का साक्षी होना एक अनोखा अनुभव था।
वक्त कैसे बीता पता ही नहीं चला।कसार देवी मंदिर से नीचे उतर कर हम बौद्ध मोनास्ट्री की ओर चल दिए। इसी ओर वह जगह भी थी जहाँ कभी पुराना ब्रिटिश बंगला हुआ करता था। डोलमा गेस्ट हाउस के मालिक ने हमें पुराने ब्रिटिश बंगले की तस्वीर दिखाई थी। उसकी जगह पर आज आधुनिक युग का बड़ा-सा मकान बना हुआ था। पुराना बंगला जंगल के बीच स्थित था। आज वहाँ पक्की सड़क बन चुकी थी। इस जगह के आकर्षण से मन को मुक्त करके मैदानों में लौटने की बात सोचना मुश्किल था। लेकिन इस जगह को अलविदा कहने का वक्त आ गया और मन में इस देवभूमि में दोबारा आने के संकल्प के साथ हम पहाड़ों को पीछे छोड़ते हुए काठगोदाम रेलवे स्टेशन की ओर चल दिए।

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