ऊंचे पहाड़ों के बीच मेघों की आँखमिचौनी के प्रति मेरा गहरा रुझान रहा है। तभी तो गर्मियों की छुट्टियों का ख्याल आते ही उत्तर बंगाल के ऋश्यप, कोलाखाम और चारकोल की खामोश वादियों में वक्त गुजरने की चाह मन में बरबस उठने लगी। छुट्टियाँ शुरू होने के पहले के अंतिम दो सप्ताह की व्यस्तताएं और भागदौड़ के पलों को हम पहाड़ी की खामोशी में डूबने के इंतज़ार में काट रहे थे।
सफर पर निकलने के दिन पास आ रहे थे। लेकिन इसी बीच नेपाल के खौफनाक भूकंप सफर के दिन गिनते मन को बेचैन कर गया। सफर को रद्द करने का पूरा दबाव रिशतेदारों की और से बना रहा। लेकिन मन को भी साल भर दौड़ने के लिए खुराक की जरूरत थी। हमने मन की बात सुनी और दार्जिलिंग मेल से न्यू जलपाईगुड़ी के लिए निश्चित दिन पर रवाना हुये।
सिलीगुड़ी में एक करीबी दोस्त के परिवार की आत्मीयतापूर्ण मेज़बानी ने सफर का खुशनुमा अगाज़ किया। उन्हे अलविदा कहकर हमारी जीप पहाड़ी रास्तों का सफर तय करने आगे बढ़ी। मैदान से हल्की ऊंचाई तय करते ही हवाओं की नमी ने अपनी कोमल छुअन से स्वागत किया। सर्पीली राहों पर हम आगे बढ़ रहे थे और दूसरी ओर गहराती खाई में चंचल तिस्ता नदी हाँफती उफनती हुई चल रही थी। कहीं चौड़ी तो कहीं पतली। पहाड़ों के चरणों में बहती तिस्ता मानो प्रकृति के एश्वर्य पर चार चाँद लगा रही हो। कलिमपोंग शहर से गुजरते हुए हम डेलो पहाड़ पहुँच चुके थे। यहाँ बादल धुएँ की तरह हमें छूते हुए गुज़र रहे थे। हम बादलों की ऊंचाई पर थे। डेलो पार्क का मेघमय सौन्दर्य हमारे अंदर रिस रहा था। डेलो में हिल टॉप पर बनी एक छावनी के बेंच पर बैठकर ऊंचाई से पतली रेखा सी दिखती तिस्ता नदी और मेघों से कहीं ढके तो कहीं अधढके दूर स्थित पहाड़ों को हम निर्वाक देख रहे थे।
हमारा अगला मुकाम ऋश्यप काफी ऊंचाई पर था। इस गाँव से कंचनजंघा की श्वेत धवल श्रंखला दिखाई देती है। सुनहरी धूप में चमकती कंचनजंघा की बर्फ से ढकी चोटियों को देखने की हसरत पहले दिन आसमान में छाए बादलों के कारण पूरी नहीं हो पायी। रात को जमकर बरसात हो तो इस हसरत के पूरे होने की संभावनाएं थीं। बहरहाल लॉगहट के लहजे में बने कमरे की बड़ी बड़ी काँच की खिड़कियों से मैं लंबे समय तक मेघों के वादियों पर छाने और हट जाने का खेल देखती रही । इसी खेल को शायद महादेवी ने मेघों की आँखमिचौनी कहा है।
इस सफर में मैंने महसूस किया कि प्रकृति और मानव मन की गतिविधियों में गहरा साम्य है। दूर कहीं खाई से धीरे धीरे ऊपर फैल जाने वाले बादलों का आस पास के सभी नज़रों को ढक देना इंसान की दुनियादारी की चिंताओं का जीवन के खूबसूरत पलों को महसूस करने की ताकत को दबा देने के बराबर महसूस हो रहा था। मेघों के साम्राज्य को चीरकर कंचनजंघा की स्वर्णाभ चोटियाँ भला कैसे दिखे। बादल की चादर तो उस दिव्य ज्योति सी उज्ज्वल शिखर के न होने का भ्रम पैदा कर रहीं थीं।
दूर से कहीं पानी के बरसने की आवाज़ आ रही थी। दरअसल दूर की पहाड़ी पर छाए बादल अब बरसने लगे थे। और धीरे धीरे वादियों का नज़ारा भी साफ हो रहा था। आँसू मन के मैल धो देता है। बरसात ने भी आसमान के मैल को धो दिया था। रात भर की बरसात ने कंचनजंघा को देखने का दरवाजा खोल दिया था। ऊंचे ऊंचे हरे पहाड़ों के पीछे गगनचुम्भी कंचनजंघा की चमकती श्वेत धवल चोटी पहाड़ों के माथे का मुकुट लग रहीं थीं। हँसती धूप के प्रसार को देखकर यह अंदाज़ा लगाना मुश्किल था कि हरियाली से भरे पहाड़ और स्वर्णाभ कंचनजंघा का यह नज़ारा आँखों के पहुँच की सीमा में होते हुए भी कल आँखों से ओझल था।
ऋश्यप से हम कोलाखाम का सफर शुरू कर चुके थे। करीब 60 राई परिवारों का यह गाँव कोलाखाम सिक्किम और भूटान के बहुत करीब है। ऋश्यप से लावा होकर कोलाखाम पहुँचने का रास्ता था। लावा में हम बौद्ध विहार देखने के लिए रुके। लावा बौद्ध विहार का शांतिपूर्ण वातावरण और नक्काशीदार रंगीन इमारतों में गहरा आकर्षण था। यहाँ करीब सौ विद्यार्थियों को बौद्ध सन्यासी के रूप में जीवन व्यतीत करने का प्रशिक्षण दिया जाता है। विशाल प्रार्थना गृह, अध्ययन स्थल और विद्यार्थियों के निवास स्थल में शांति और गांभीर्यपूर्ण सौन्दर्य छाया हुआ था। इस शांत जगह से अब हम कोलाखाम के उस मुकाम की ओर बढ़ रहे थे जिसे ’साइलेंट वैली’ के नाम से जाना जाता है।
कोलाखाम में कदम रखते ही ऋश्यप की तुलना में इसकी निर्जनता के आधिक्य का अंदेशा लगते देर नहीं हुई । यहाँ के निवासी दीपक राई की मेज़बानी में एक नए किस्म के एहसास का सफर शुरू हुआ। इस जगह से एक साथ कई पहाड़ों का ढलान दिखना और दो कतारों में बटें पहाड़ों के बीच ऋषि नदी के बहने के दृश्य को वन में गूँजते पक्षियों की आवाजों के बीच निरखना एक स्वर्गीय अनुभव था। लेकिन सच का एक पहलू यह भी है कि कोलाखाम पहुँचते ही यह स्वर्गीय अनुभूति एकाएक ही नहीं हो पायी।
कोलाखाम पहुँचते ही यहाँ की निर्जनता ने मुझे सबसे पहले छुआ। इस निर्जनता से सबसे पहले एक अंजाना सा भय पैदा हुआ। किसी सुनसान जगह में एकाएक आ पहुँचने का भय। आस पास सिर्फ घने पेड़ और सुनसान पहाड़ी रास्ता। उस पर यह खबर कि यहाँ न कोई दवाखाना है और न ही कोई डॉक्टर। यहाँ तक कि इसके निकटतम शहर लावा में भी अस्पताल नहीं मिलता। निकटतम अस्पताल कलिमपोंग में है, जहाँ पहुँचने में यहाँ से तीन घंटे लगते हैं। एकाएक मन में कई सवाल उठने लगे। शहर से इस तरह कटे गाँव में शिक्षा, मनोरंजन, जीविकोपार्जन के क्या साधन होंगे? डाक तथा बाज़ार की सुविधाएं हासिल करने के लिए निकतम शहर लावा तक दौड़ने की जहमत भी कितने लोग उठा पाते होंगे? कितना सूनापन भरा होगा यहाँ की ज़िंदगी मैं। निर्मल वर्मा की ’लाल टीन की छत’ उपन्यास में व्यक्त पहाड़ी निर्जनता और भय का ख्याल हो आया। इन्हीं ख्यालों से मन शाम तक बोझिल रहा।
रात को दूर के पहाड़ों में जुगनुओं की तरह रोशनी टिमटिमाने लगी थी। जो इस निर्जन में इन्सानों की मौजूदगी का संकेत दे रही थी। पूछने पर पता चला कि उस पहाड़ पर सिक्किम है। कोलाखाम में सिर्फ राई परिवार के लोग ही रहते हैं। अगले दिन सुबह यहाँ जिंदगी के खुशनुमा संकेत दिखने लगे। सबसे पहले नज़र पड़ी सीढ़ीदार खेतों पर। पहाड़ी ढलान पर बने सीढ़ीदार खेत यहाँ के लोगों के मेहनतकश होने का संकेत दे रहे थे। यहाँ के हर घर का एक महत्वपूर्ण अधव्यवसाय खेती है। इलाईची की खेती यहाँ इफरात में होती है। यहाँ के लोगों के लिए ऊंचाई से काफी नीचे तक चंद मिनटों में पहुँच जाना कोई बड़ी बात नहीं हैं। यहाँ के बच्चे से लेकर बूढ़े तक बड़ी आसानी से ऊंचाई से नीचे तक का सफर शॉर्टकट रास्तों से बड़ी जल्दी तय कर लेते हैं। पर्यटकों के रहने और सैर करने के प्रबंध के जरिये अच्छी आमदनी हो जाती है। दूषण मुक्त वातावरण में डॉक्टर और दवाखाने की जरूरत बहुत कम पड़ती है।
सुबह ट्रेकिंग करते हुये ढलानों पर बने कई बेहद खूबसूरत घर दिखे। उनमें से एक घर का खास जिक्र करना जरूरी है। इस घर के सामने नर्म घास गलीचे की तरह बिछी थी। खाई की तरफ एक श्रंखला में पाइन वृक्ष लगे थे। और घर के सामने रंग बिरंगे फूलों के पौधे लगे थे। एक ओर यह सौन्दर्य और दूसरी और नीचे बहती ऋषि नदी की कल कल आवाज़। इस घर के मालिक और कारीगर एक कृषक विकास राई थे। उनके सौन्दर्य बोध और समृद्ध सोच ने हमें काफी प्रभावित किया।
पहाड़ की ढलान पर बने घर के सामने एक छोटी सी जगह पर तीन बच्चों के क्रिकेट खेलने के नज़ारे ने भी यहाँ के जीवन के एक और चरित्र को खोला। बच्चों की उम्र पाँच से छह साल की होगी। पहाड़ की ढलानों पर अक्सर गेंद लुढ़क कर नीचे चली जाती थी। इस समस्या से निपटने के लिए उन्होने अपनी गेंद कागज से बनाई थी। एक गेंद के खोने पर नई गेंद बनाने के लिए कागज का इंतज़ाम भी था। प्रकृति के साथ समझौता करके ही इन बच्चों ने मनोरंजन की राह खोज ली थी। मैंने महसूस किया कि मैदानी जीवन के चश्मे से कोलखाम के पहाड़ी जीवन के चरित्र का आकलन करना संभव नहीं था।
कल मन में उभर आए तमाम दुखपूर्ण सवाल आज मन से गायब हो चुके थे। सुबह सैर पर निकलकर मिले लोगों से पता चला कि हाई स्कूल भले ही लावा में हो, पर यहाँ के लोग प्राइमरी स्कूल तक कोलाखाम में बच्चे को पढ़ाने के बाद उन्हें आगे की पढ़ाई के लिए पेडून, लावा या कलिमपोंग भेज देते हैं। लावा में हफ्ते में एक बार लगने वाले हाट से लोग अपने जरूरत का सामान हफ्ते भर के लिए खरीद लेते हैं। पर्यटकों के आने की सूचनाएँ बुकिंग एजेंट से फोन पर ही मिल जाती हैं। इसलिए उनके लिए प्रबंध करने में भी दिक्कत नहीं होती। खुला प्राकृतिक परिवेश और बाज़ार से दूरी तब मुझे इनके लिए वरदान सी जान पड़ने लगी। शहरों में शिक्षा हासिल कर रही इनकी अगली पीढ़ी इस वरदान को महफूज़ रखने में कितनी कामयाब होगी यह बात मन में उठी तो जरूर थी लेकिन ऊंचे पहाड़ों के पीछे बादलों के हट जाने की वजह से उभर आई सफ़ेद अन्नपूर्णा की चोटी ने इस बात पर सोचने की फुर्सत ही नहीं दी।
घने जंगल के बीच से गुजरते रास्तों से हम कोलाखाम को छोड़कर एक और खूबसूरत मुकाम चारकोल की ओर बढ़ रहे थे। चारकोल लोलेगाँव के ऊपरी भाग पर स्थित एक छोटा सा गाँव है। यहाँ घने जंगल नहीं बल्कि चारों ओर सीढ़ीदार खेती का नज़ारा दिखता है। खूबसूरत फूलों के पौधे यहाँ की मिट्टी में आसानी से उग जाते हैं। इस गाँव के लोगों का सौंदर्यबोध भी देखने लायक है। ये पौधे चारकोल के रास्ते से गुजरने के एहसास में रंग भर रहे थे। यहाँ भी हमें ट्रेकिंग के दौरान गाँव के लोगों से घुलने मिलने का मौका मिला। चारकोल के पहाड़ के शिखर पर मेंढक के आकार का एक पत्थर है। लोगों का कहना है कि यह पत्थर बहुत दूर से दिखता है। यहाँ तक कि सिलीगुड़ी से भी। कोकोमाण्डू के फूल के साथ यहाँ के लोगों के रिश्ते को जानना भी एक खूबसूरत मंजर था। सूरज के आकार के इस सफ़ेद फूल के बगैर यहाँ उत्सव या शुभ कार्य नहीं होता। यह रिवाज़ दरअसल सूरज के प्रति उनके श्रद्धा भाव से गहरा ताल्लुक रखता है। ग्लोब जैसे पृथ्वी का मॉडल है ठीक उसी तरह इनके लिए कोकोमाण्डू का फूल सूरज का मॉडल है।
चारकोल के लोगों का आपसी मेलजोल खास तौर पर उल्लेखनीय है। चाहे पहाड़ के ढलान पर घर बनाने की बात हो या उत्सव की बात हर कोई श्रमदान के लिए तत्पर है। हर हाल में एकता बनाए रखने की कोशिश इनमें दिखती है। चारकोल की खूबसूरती से रिझकर कुछ पर्यटक यहाँ हर साल आते हैं। पर्यटन की संभावनाएं देखते हुए यहाँ कुछ पूंजीपति होटल बनाने के लिए पूंजी निवेश कर रहे हैं। लेकिन सच का एक पहलू यह भी है कि होटल के परिवेश में घर की सी आत्मीयता नहीं होती। मेजबानी यहाँ के लोगों के चरित्र में घुला है। लेकिन पर्यटकों के लिए होटल की सी सुविधाएं उपलब्ध कराने की पूंजी इनके पास नहीं हैं। और न ही शहर के पर्यटकों तक अपने होने की खबर पहुँचने का साधन इन्हें मालूम है। यहाँ आकर होटल में रहने वाले पर्यटक नेपाली संस्कृति को करीब से देखने का मौका खो देंगे। मन में बार बार यह ख्याल आता रहा कि पर्यटन को अध्ययन के विषय के रूप में चुनने वाले विद्यार्थी इन गाँववालों और शहरी पूँजीपतियों के बीच सेतु का काम कर सकते हैं। पूंजीपति अगर इनके मकान का एक भाग लीज़ पर लेने के साथ इसके प्रचार का प्रबंध करें और मेजबानी और खान पान के प्रबंध का भार इन पर सौपें तो मेजबानी से गाँववालों की आमदानी हो पाएगी और पर्यटकों को नेपाली संस्कृति का स्पर्श भी मिल पाएगा। दरअसल यहाँ के सांस्कृतिक वैशिष्ट्य से गहरा लगाव महसूस करने के कारण मन बाजारी संस्कृति के चारकोल में प्रवेश के ख्याल को परास्त करना चाह रहा था। इस सफर से लौटे हुये काफी दिन बीत जाने के बावजूद वहाँ के लोगों की मेजबानी में शामिल उनकी संस्कृति की गंध मेरी यादों में आज भी तारो ताज़ा है।
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