हावड़ा जिले के उलुबेड़िया में स्थित गौरचुमुक के शांतिपूर्ण वातावरण में बिताई दुर्गा पूजा की छुट्टियों की यादें अब भी मन में ताजा थीं। इसी सफर में हम एक दिन गादियारा घूम आए थे। रूपनारायण, गंगा और दामोदर नदी के संगम स्थल पर बसा गादियारा आंखों की तृष्णा को तृप्त करने की ताकत रखता है। चंद लम्हें बिताकर गादियारा से लौटना मन को रास नहीं आ रहा था। तभी मन ने तय कर लिया था कि यहां फिर आना होगा। आज संकल्प पूरा करने का वह दिन हाजिर था। नदी के किनारे जगह-जगह बने बेंच, खुला उद्यान, नदी का चौड़ा वक्षस्थल और हरियाली के बीच पक्षियों का कलरव बुजर्गों के लिए भी इस जगह को आदर्श ठहराता है। यहां आकर कहीं और कुछ देखने निकलने की गुंजाइश नहीं रहती। नदी के ठीक किनारे बसा रूपनारायण पर्यटन केंद्र और उसका सजीला प्रांगण शिशु से लेकर बुजुर्ग तक को खुलकर प्रकृति के साये में वक्त बिताने का न्यौता देता है। प्रकृति के इस खुले निमंत्रण पर मेरे और शांतनु दोनों के माता-पिता के साथ हम गादियारा के सफर पर रवाना हुए।
दिसंबर का सर्द मौसम उस पर किरणों की ऊष्ण छुअन शरीर और मन दोनों को तरोताजा कर रही थी। साथ ही दूर-दूर तक फैले धान के खेत ग्राम बांग्ला के सौंदर्य में चार चाँज लगा रहे थे। धान की कटाई हो चुकी थी। इसलिए दूर-दूर तक फैली जमीन पीली चादर ओढ़ी हुई सी जान पड़ रही थी। हम डाब (कच्चा नारियल) के भंडार के बगल से गुजरे। लेकिन यहां अगर आपको डाब का पानी पीना हो तो गंवई ढंग से बगैर स्ट्रा के पीना होगा। इस तरह डाब का पानी पीने का आनंद ही निराला है। मसृण सड़क पर दौड़ती हुई हमारी गाड़ी उस मुकाम पर आ पहुंची जहाँ सड़क खत्म होती है और सामने नदी का विस्तृत वक्षस्थल है। नदी के समानांतर चली गई सड़क पर कुछ दूर पहुंचते ही रूपनारायण पर्यटन केंद्र का विस्तृत प्रांगण है। लॉन, बेंच, झूले, कुछ ऊंचाई से नदी का दृश्य देखने के लिए बनी छावनी और कमरों से दिखाई देने वाला नदी का दृश्य इस जगह में सौंदर्य का रंग घोलता है। हम यहां पहुंचने के साथ ही इसी रंग में डूबने लगे थे। शाम हो चुकी थी और धीरे-धीरे रात की काली चादर इस जगह को अपने आगोश में ले रही थी। अंधेरा होते ही नदी के उस पार दिखने वाली टिमटिमाती रोशनी और नदी पर चलते स्टीमर और जहाजों की रोशनी हमारा ध्यान खींचने लगी।
पर्यटन केंद्र में जहाँ-तहां लगे झूलों ने बचपन को याद करने का न्यौता दिया और हमारे साथ आए बुजुर्गों ने भी उम्र का बंधन तोड़कर झूला झूलने का आनंद लिया। प्रकृति मां के आगोश में आकर सब शिशु से बन गए थे। इसी को प्रकृति का असर कहते हैं। जहाँ प्रकृति जननी का यह अपार सौंदर्य दिखा वहीं पिकनिक के नाम पर इस जननी के आंचल को मैला करने और स्पीकर पर बजते पॉप, रैप, डिस्को की धुनों से शांति में शोर का जहर घोलने के दुखद दृश्य भी दिखे। मौजमस्ती में मशगुल लोग प्लास्टिक कप, थरमोकोल की थाली और ढेरों कागज फैलाकर मानो प्रकृति को कुरूप बनाने की होड़ में शामिल हो गए थे। खाने, पीने और धड़कन को तेज दौड़ाने वाले भड़कीले गीतों पर बेकाबू होकर झूमने की यह अंधे बहरों की संस्कृति खामोशी में सुनाई देने वाली प्रकृति की धड़कन को दबोच कर बैठी थी। नदी का चौड़ा सीना और गगनचुंबी हरे-हरे पेड़ मानो इस संस्कृति को खामोश ढंग से चुनौती दे रहे थे। और साथ ही लोगों से यह सवाल भी कर रहे ते कि देखने, सुनने और महसूस करने की ताकत है तो महसूस करो कि इस पूरे वातावरण में मन में आनंद घोलने की असली ताकत किसमें है? इस हालात में मन ने चुपके से कहा कि प्रकृति और अंधे-बहरों की संस्कृति के बीच छिड़ी इस जंग को लोग समझना ही नहीं चाहते। फिर प्रकृति भूकंप, बाढ़, सूखा महामारी के जरिए लोगों पर कहर ढाए तो गलत कहां है? प्रकृति के शांतिपूर्ण सौंदर्य को नष्ट करने वाले भी उतने ही गुनहगार हैं जितना वे लोग जो इस विनाशलीला को चुपचाप देखते हैं।
गादियारा में कभी मोर्निंगटन दुर्ग हुआ करता था। जिसे लार्ड क्लाइव ने बनवाया था। सन् 1909 के हावड़ा जिले के गजट में इसका जिक्र मिलता है। जहाँ यह दुर्ग था, उस जगह को ’फोर्ट मार्निंगटन प्वाइंट’ के नाम से जाना जाता है। यह प्वाइंट रूपनारायण और हुगली नदी के संगम-स्थल पर है। सन् 1942 के चक्रवात के चलते यह दुर्ग ध्वस्त हो गया और आज दुर्ग के नाम पर टूटी हुई दीवार का एक अंश ही दिखाई देता है। वह भी तब जब पानी का स्तर नीचा होता है। डचों और फ्रांसीसियों पर नजर रखने के साथ ही जल परिवहन पर नियंत्रण रखने के लिए इस जगह पर बनवाया गया दुर्ग मानो इतिहास के झरोखे से गादियारा की कहानी को समझने की अपील करता है। रूपनारायण पर्यटन केंद्र के सामने से निकली सड़क पर खड़े होते ही रूपनारायण नदी में टूट फूट कर गिरी हुई दुर्ग की दीवार का अंश दिखा। इसी के साथ मन इस बात की कल्पना भी करने लगा कि यह दुर्ग आखिर कैसा था? इस कल्पना को एक महिला के इस कथन से पंख मिले कि उनके पूर्वजों ने यहां दुर्ग का काफी ज्यादा अंश देखा है। देखते ही देखते पानी का स्तर ऊपर उठने लगा और दुर्ग का टूटा हुआ अंश नदी की गोद में इस तरह समा गया कि इस बात का अंदाजा लगाना ही मुश्किल था कि यहां किसी दुर्ग का ध्वंसावशेष भी है। नदी और इतिहास के बीच यह अद्भुत सांठ-गांठ है। कभी नदी इतिहास को अपने भीतर से झांकने का मौका देती है और कभी उसके नामोंनिशा तक न होने का भ्रम पैदा करती है।
सुबह का हम सबको बेसब्री से इंतजार था। खास कर सूर्य की पीली किरणों से नदी के वक्षस्थल के रंग जाने का दृश्य देखने को मन उत्साहित था। नदी की चंचल लहरों पर सूरज की किरणें नाच रही थीं। ऐसा लग रहा था मानो सूर्यलोक से नदी तक एक पीली रोशनी का जीना बन गया है। सूरज की किरण परियां मानो नदी का जल स्पर्श करने के लिए आसमान से उतर रही हैं। इस दृश्य में आंखें कुछ देर तक खाई रहीं।
कठिन परीक्षा की घड़ियां सामने थीं। इस परीक्षा में अगर सफलता हासिल हो पाए तो अनोखे अनुभवों की शृंखला जयमाला लिए हमारा इंतजार करती हुई मिलेगी वरना पराजय को स्वीकार कर खास अनुभवों को पाने की इच्छा का इस बार के लिए त्याग करना होगा। परीक्षा थी गादियारा से जल पथ से गेओंखाली नामक गांव पहुंचने की। गादियारा की जेट्टी पक्की है। लेकिन गेओंखाली में पक्की जेट्टी नहीं है। काठ के तख्ते पर पैर रखते हुए बांस को पकड़कर स्टीमर से जमीन तक पहुंचना पड़ता है। तख्ते से अगर पैर फिसले तो सीधे पानी में गिरे। हमारे दल के चार बुजुर्ग और मेरी दस साल की पुत्री को लेकर सबसे ज्यादा चिंता थी। इस राह से जाने में अगर नाकाम रहे तो तकरीबन ढाई घंटे का सफर सड़क से तय करके वहां पहुंचा जा सकता है। लेकिन उसके लिए अगले दिन नदी के किनारे एक खूबसूरत जगह पर बैठकर पूरा दिन नदी को निरखने की योजना रद्द करनी होगी। मन इस बात की इजाजत नहीं दे रहा था। आखिरकार हम हिम्मत करके गेओंखाली के स्टीमर पर चढ़ गए। नौ बजने के बाद धीरे-धीरे पानी का स्तर ऊंचा हो जाता है तभी गेओंखाली के घाट पर काठ के तख्ते से जमीन तक की दूरी भी कम दिखी। जैसे तैसे बांस को कसकर पकड़कर तख्ते पर पैर रखते हुए जब हम जमीन तक पहुंचे तब लगा जैसे जंग जीतकर आए हैं। हम तो खैर पर्यटक थे, लेकिन रोज कई सौ लोग इसी रास्ते से रोजी रोटी कमाने के लिए नदी के दूसरे किनारे तक पहुंचते हैं। उनके कष्ट की बात सोचते ही जिंदगी से हमारे गिले शिकवे कहीं रफूचक्कर हो गए। गेओंखाली से ही महिषादल जाने का रास्ता था। क्रांतिकारी कवि निराला का निवास स्थल, महिषादल का पुराना महल और जानकी देवी द्वारा निर्मित नया महल, गोपाल जी का मंदिर और राजघराने की संस्कृति का आभास पाने का मौका हमारे इंतजार में खड़ा था। नदी पार करते ही हम टोटो से महिषादल राजबाड़ी की ओर रवाना हुए।
सुंदर सजीले सती सामंत रेलवे स्टेशन के नीचे से गुजरते हुए, महिषादल राज महाविद्यालय का भव्य भवन पार करके हम श्वेत धवल ’महिषादल राजबाड़ी’ के सामने पहुंचे। श्वेत रंग के साथ सुनहरे रंग का बार्डर इस भवन को आभिजात्यपूर्ण स्वरूप दे रहा था। विस्तृत हरा मैदान, झील, झील के किनारे लगे खूबसूरत वृक्ष इस जगह में सौंदर्य का रंग घोल रहे थे। इसके खूबसूरत परिवेश के कारण इस जगह को फिल्मों के शूटिंग स्पॉट के रूप में भी इस्तेमाल किया गया है। छोटी बड़ी झीलें, पाम वृक्ष इस जगह को अनोखे सौंदर्य से भर रहे थे। नए महल के निचले तल्ले में राजघराने का संग्रहालय है। सोलहवीं सदी में उत्तर भारत में आए व्यापारी जनार्दन उपाध्याय गर्ग ने महिषादल में जमींदारी स्थापित करने के लिए विशाल संपत्ति खरीदी थी। 18वीं सदी में रानी जानकी देवी के काल में इस राज की गरिमा चरमोत्कर्ष पर पहुंची थी। रानी जानकी देवी द्वारा बनवाया गया नया महल ही आज महिषादल राजबाड़ी के नाम से प्रसिद्ध है। राजबाड़ी के एक कक्ष में राजा एवं उनके वंशधरों की तस्वीरें और उनके द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली वस्तुएं रखी हैं। इस कक्ष में प्रवेश करते ही राजघराने की संस्कृति का स्पर्श मिलता है। दूसरे कक्ष में राजाओं द्वारा शिकार किए गए जानवरों को कुछ इस तरह रखा गया है कि वहां प्रवेश करते ही कुछ जानवर जीवित जानवरों के समान खड़े दिखते हैं। शेर, हिरण, मगरमच्छ, भालू, बाइसन, चीता, बाज़ पक्षी जिनका वर्षों पहले शिकार किया गया भला आज भी उनके शरीर को इस तरह रख पाना कैसे संभव हो पा रहा था, इसी बात का जवाब मैं खोज रही थी। तब संग्रहालय के एक व्यक्ति ने बताया कि यहां जानवरों की खालें और चेहरे असली हैं। लेकिन शरीर का ढांचा बनाकर उस पर खाल चढ़ा दी गई है। साथ ही आंखें भी कृत्रिम ढंग से बना दी गई हैं। रासायनिक पद्धति से खालों की सुरक्षा का प्रबंध किया गया है। इस कक्ष को देखते ही मन मे यह सवाल भी उभर आया था कि निरीह जानवरों का शिकार करके कोई भला आनंद कैसे पा सकता है? राजा के तख्त पर बैठकर परिवेश को शांति और सौंदर्य से भरने के कितने महत् कार्य किए जा सकते हैं। इन्हें छोड़कर मासूम जानवरों के शिकार में ऊर्जा व्यय करना क्या मनुष्यता के धर्म का सही ढंग से पालन करना है?
महल के एक और कक्ष में राजाओं के बिलियार्ड खेलने के समान हैं। एक कक्ष राजाओं के विपुल अस्त्र शस्त्र, जूते, वाद्य यंत्रों से भरा है। साथ ही एक विश्राम कक्ष भी है, जहाँ एक पियानो, ग्रामोफोन, राजसी कपड़ों के साथ एक बड़ा और ऊंचा बिस्तर है जिस पर सीढ़ी से चढ़कर एक गेट से होकर प्रवेश किया जाता है। बिस्तर पर रखे तकियों का आकार भी विशालकाय है।
महिषादल का पुराना महल एक खंडहर सा दिखता है। जिसके सामने सिंह की दो मूर्तियां रखी हुई हैं। इसी के सामने से गुजर कर हम रानी जानकी देवी द्वारा बनवाए गए गोपालजी मंदिर तक पहुंचे। इस मंदिर में असली सोने की मूर्ति हुआ करती थी। उस मूर्ति के चोरी हो जाने के बाद आज यहां दर्शनार्थियों के लिए किसी अन्य धातू से बनी मूर्तियां रखी गई हैं। बारह बजे यह मंदिर बंद हो जाता है और फिर तीन बजे दर्शनार्थियों के लिए खुलता है। मंदिर के पिछवाड़े में एक तालाब है और मंदिर प्रांगण से ही सीढ़ियां उस तालाब तक चली गई हैं। तालाब के बगल से निकले रास्ते के दोनों ओर पाम के वृक्ष कतार में खड़े हैं।
महिषादल राजबाड़ी के इलाके से अब हम नटशल रामकृष्ण मिशन की ओर रवाना हो चुके थे। नदी के समानांतर दूर तक चली गई सड़क के दोनों ओर लगे वृक्ष परिवेश को सौंदर्य से भर रहे थे। रामकृष्ण मिशन के पास सड़क के उस पार नदी की ओर विस्तृत ऊंचा भूखंड था। जिस पर दूर तक हरी घास फैली हुई थी। साथ ही कहीं-कहीं फसल भी उगाई गई थी। इस भूखंड पर बैठकर नदी का नजारा देखने का आनंद ही कुछ और था। सड़क के पास नदी के किनारे के इस मैदान पर बैठकर ऊंचाई से नदी को देखा जा सकता था। नदी के जल का स्तर बढ़कर भी इस भूखंड को भिगो नहीं सकता था। यहां की हवा में अद्भुत शांति थी। उस पर रामकृष्ण मिशन का परिवेश यहां की हवा को और भी शांति से भर रहा था। इसी जगह से श्री रामकृष्ण ने यहां अपने विचारों का प्रचार-प्रसार आरंभ किया था। रामकृष्ण मिशन के इस प्रांगण में कई किस्म की फसल उगाई गई है। आत्मनिर्भर बनाने के लिए यहां दर्जी और बढ़ई का काम भी सिखाया जाता है। रामकृष्ण मिशन से लौटते हुए रास्ते में सिंचाई दफ्तर का सरकारी बंगला दिखा। विशाल प्रवेश द्वार से सीधे बंगले तक जाने वाला लाल मिट्टी का रास्ता। दोनों ओर लगे पाम के वृक्ष। एक ओर बड़ा तालाब और बंगले के बरामदे से दिखने वाला नदी का दृश्य उस पर इस जगह का शांतिपूर्ण परिवेश एक स्वर्गीय अनुभूति जगा रहा था। इस अनुभूति को मन में संजोकर हम त्रिवेणी संगम टूरिस्ट लौज की ओर बढ़ने लगे।
हल्दिया डेवेलपमेंट अथॉरिटी द्वारा चलाया जाने वाला त्रिवेणी संगम टूरिस्ट लॉज एक शांतिपूर्ण जगह पर स्थित है। लॉज के प्रांगण में ही बना अम्यूज़मेंट पार्क, झील, लाल मिट्टी के रास्ते के बगल में लगे सजीले पेड़-पौधे और लॉज के बगल से निकली सड़क के उस पार नदी का विस्तृत वक्ष स्थल सौंदर्य की छटा बिखेर रहा था। उसी के बगल में बसे जल शोधन परियोजना के प्रांगण के पीछे बनी बड़ी-बड़ी झीलें आंखों में ठंडक भर रही थीं। लेकिन यहां भी अंधे बहरों की संस्कृति के अनुयायियों द्वारा बिखेरी गई थरमोकोल की थालियां प्लास्टिक, कागज दृश्य को दूषित कर रहे थे, पर विस्तृत जलाधार ध्यान को बरबस ही अपनी ओर खींच ले रहा था।
गेओंखाली से जल पथ से गादियारा लौटने का पल हाजिर था। नदी के पानी का स्तर काफी नीचे जला गया था। नदी के किनारे से काफी नीचे उतर कर स्टीमर पर चढ़ने के लिए काठ का तख्ता डाला गया था। साथ ही एक व्यक्ति कंधे पर बांस टिकाकर उसके दूसरे सिरे को नदी के निचले स्तर पर लगे पत्थर से टिकाकर खड़ा था। बांस को पकड़कर तख्ते पर पैर रखते हुए स्टीमर तक पहुंचने का काम इस बार कुछ और कठिन हो गया था। स्टीमर से आए लोगों को उतरने और स्टीमर से जाने वाले लोगों को चढ़ने में लगभग आधा घंटा लग गया। स्टीमर अपने निर्धारित समय से लगभग पंद्रह मिनट बाद छूट पाई। इस बीच पानी का स्तर लगातार गिरते जाने के कारण स्टीमर लगातार पीछे हट रहा था। और किनारे की पक्की जगह से स्टीमर की दूरी लगातार बढ़ रही थी। खुशनुमा पलों की अनुभूति ने हमारी हिम्मत थोड़ी बढ़ा दी थी। सबके साथ गेओंखाली से स्टीमर पर चढ़कर ऐसा लगा मानो इस बार के लिए हमने वैतारिनी पार कर ली।
अगले दिन सुबह रूपनारायण पर्यटन केंद्र के सामने से निकली सड़क पकड़कर रूपनारायण नदी के समानांतर उत्तर की ओर सुबह की सैर पर जाने की योजना थी। सर्द मौसम में सुबह छह बजे बुजुर्गों के उठकर हमारे साथ चलने की गुंजाइश ही नहीं थी। इसलिए मैं और शांतनु ही सुबह की सैर पर निकले। पक्की सड़क रूपनारायण पर्यटन केंद्र तक आकर ही समाप्त हो गई थी। उसके बाद से लाल मिट्टी की कच्ची सड़क थी। सड़क के दोनों ओर ऊंचे-ऊंचे पेड़ थे और हमारे दाहिने ओर रुपनारायण नदी और बाईं ओर दूर तक फैले खेत और कुछ दूरी पर उगे खजूर के पेड़ थे। सुबह की इस सैर को नदी के पानी की कल-कल ध्वनि और पक्षियों के कलरव ने और सुरम्य बना दिया था। इस संगीतमय वातावरण में हमारे कदम बस आगे बढ़ते गए। रास्ते में हमें नदी के किनारे दूर तक फैले बढ़े-बढ़े पत्थर दिखे जिन्हें नदीं के किनारों पर जमाकर किनारों को पक्का करने का काम चल रहा था। मेरी आंखें एक ऐसी जगह तलाश रही थीं जहां के वातावरण में अनोखी शांति हो। सड़क और नदी के बीच जहाँ हरा मैदान हो। जहाँ बैठकर पानी की कल-कल ध्वनि और पक्षियों का कलरव सुना जा सके। ऐसी कोई जगह उस सड़क पर चलते हुए मिलेगी या नहीं हमें मालूम नहीं था। लेकिन रास्ते में मिले कुछ गांववालों से यह जानकर कि आगे नदी के किनारे मैदान है, हम उम्मीद का दामन पकड़कर आगे बढ़ते रहे।
सुबह के इस अनोखे सैर पर निकलकर हमें ईंट बनाने की जगह को करीब से देखने का मौका मिला। इस व्यवसाय में सांचे में ढली कच्ची ईंटों को सुखाने के लिए कितने विशाल जगह की जरूरत होती है इस बात का अंदाजा पहली बार हुआ। साथ ही ईंटों को जलाने के काम को करीब से देखने का मौका भी मिला। ईंटों को जलाने के लिए लगाई गई आग को बार-बार बुझाया नहीं जाता। यह काम लगातार छह महीनों तक चलता है। बरसात शुरू होने के पहले तक। इसलिए ईंटों को जलाने के साथ ही कच्ची ईंटों को सांचे में ढालने का काम लगातार चलता रहता है। पशुपालन, मत्स्य व्यवसाय, खेती, पर्यटन केंद्र में काम करने, पर्यटकों को वाहन में घुमाने, छोटी-छोटी दुकानें चलाने के अलावा ईंट निर्माण के कारखाने में काम के जरिए गादियारा गांव के लोग जीविकोपार्जन करते हैं। यहीं पता चला कि आगे रामकृष्ण मिशन का एक परित्यक्त भवन है। उसी के ठीक विपरीत एक मैदान है जहाँ बैठकर रूपनारायण नदी को देखा जा सकता है।
रामकृष्ण मिशन के ठीक विपरीत सड़क के दाहिने ओर से एक पगडंडी नदी की ओर चली गई थी। इस पगडंडी से गुजरते हुए हम एक नर्म गलीचे की तरह बिछी हुए घास के मैदान में पहुंचे। रूपनारायण नदी के जल की कल-कल ध्वनि, आंखों के सामने नदी का विस्तृत वक्ष-स्थल, दाएं-बाएं दोनों ओर जहाँ भी दृष्टि जा पाती है सिर्फ जल ही जल था। दूर कहीं वह मसृण रेखा दिख रही थी जहाँ आसमान और जल का मिलन होता हुआ-सा जान पड़ता था। उस पर हवा भी सांय-सांय की आवाज करके वातावरण में निर्जनता का आभास पैदा कर रही थी। रूपनारायण पर्यटन केंद्र से उत्तर की ओर चलते हुए किसी खास जगह की तलाश में हम टेटीखोला गांव तक आ गए थे। लौटने का जरा भी मन नहीं था। लेकिन वक्त को देखते हुए हम वहां से रवाना हुए। अब तो बस किसी भी तरह पर्यटन केंद्र में बैठे मेरे माता-पिता, सास-श्वसुर और बेटी को यहां लाने की धुन सवार थी। यहां तक पहुंचने का रास्ता संकरा और ऊबड़ खाबड़ था। उस पर जिन्हें हम यहां लाना चाहते थे उनके लिए यहां चलकर पहुंचना भी संभव नहीं था। इसलिए गेस्ट हाउस पहुंचते ही हमने उस ऊबड़-खाबड़ रास्ते पर चलने के लिए उपयुक्त और सुरक्षित वाहन की खोज शुरू कर दी। वाहन मिलने की हमें पूरी उम्मीद थी क्योंकि यही वह रास्ता था जो टेटीखोला गांव को गादियारा जेट्टी से जोड़ता था। और यह स्वाभाविक था कि गांव से जेट्टी तक बुजुर्गों को पहुंचाने के लिए कुछ तो साधन होगा? सौभाग्य से एक टेम्पोवाला दोपहर के भोजन के बाद हमें उस जगह पर लाने के लिए राजी हुआ। बुजुर्गों के लिए इस रास्ते से गुजरना किसी एडवेंचर से कम नहीं था। साथ ही लुढ़के तो सीधे नदी में गिरने का डर भी कायम था। लेकिन वाहन चालक के आत्मविश्वास और उसकी दक्षता को देखते हुए सब धीरे-धीरे आश्वस्त हुए। इस जगह पर पहुंचना कठिन था और इसीलिए यहां सर्दी के मौसम में मौज-मस्ती में मशगुल होकर पिकनिक मनाने वालों के पहुंचने की गुंजाइश नहीं थी। इस जगह की नीरवता और शांति को बचाकर रखने का श्रेय इस दुर्गम और ऊबड़-खाबड़ रास्ते को ही देना होगा। मन में जब यह बात आई तब यहां तक पहुंचने के रास्ते का ऊबड़-खाबड़पन वरदान-सा लगने लगा। यहां पहुंचकर हम सब अनायास ही थोड़ी देर के लिए खामोश हो गए थे। खामोश होकर मानो प्रकृति की धड़कन को सुनने की कोशिश कर रहे थे। शाम का सूरज ढलने को था। नदी के वक्षस्थल पर सूरज की किरणें क्रमश: लंबी होती जा रही थीं। प्रकृति ही मानो इशारा कर रही थी कि अब लौटने का समय हो गया है। हमें उस ऊबड़-खाबड़ रास्ते से होकर गुजरना था और हम इस मनोरम दृश्य की छवि को आंखों के कैमरे में कैद करके गेस्ट हाउस की ओर रवाना हुए।
टेटीखोला से लौटते हुए हमें ईंट से बने चिमनी के आकार का एक चौकोर ढांचा दिखा। यह परित्यक्त ढांचा जहाजों को दिशा दिखाने वाला मीनार या फिर लाइट हाउस रहा होगा। इसके निचले हिस्से से लगभग तीन मीटर छोड़कर लोहे के कई छल्ले बने हुए थे, जो ऊपर तक चले गये थे। इन छल्लों से होकर एक लोहे की सीढ़ी भी ऊपर तक चली गई थी। इस ऐतिहासिक ढांचे के बारे में कुछ विशेष जानकारी नहीं मिलती। इसके अगल-बगल में गांववालों ने घर बना लिए थे। लेकिन मार्निंगटन दुर्ग के अवशेष बड़ी खामोशी के साथ इतिहास की इस हकीकत को बयां कर रहे थे कि एक समय जब ईस्ट इंडिया कंपनी को वाणिज्य व्यापार संभालने और सैनिक गतिविधियों पर नजर रखने का काम करना पड़ता था तब जलपथ पर नजर रखना जरूरी था। माल को एक जगह से दूसरी जगह तक पहुंचाने के लिए वे जलपथ पर निर्भरशील थे। उस पर ब्रिटिशों के प्रतिद्वंद्वी फ्रांसीसी चंदननगर के पास और डच श्रीरामपुर के पास अपना उपनिवेश बनाने में जुटे थे। उनका व्यवसाय भी जलपथ के जरिए ही होता था। ऐसे में गादियारा जैसे तीन नदियों के संगमस्थल पर दुर्ग बनाने की जरूरत लार्ड क्लाइव ने महसूस की थी। आज यहां आने वाले पर्यटक इस जगह के ऐतिहासिक महत्व को जाने बगैर ही थोड़ी देर यहां घूमकर या फिर पिकनिक की मस्ती में डूबकर लौट जाते हैं। इतिहास की समझ किसी जगह को देखने के नजरिए को कितना समृद्ध कर देती है इस अनुभव से वह महरूम रह जाते हैं। अगर इस जगह के ऐतिहासिक महत्व का प्रचार किया जाए और साथ ही इस जगह की शांति और स्वच्छता को बचाए रखने के लिए कठोर कदम उठाए जाएं तो बंगाल का यह समृद्ध स्थल प्रकृति प्रेमियों, इतिहासविदों के अलावा शांतिप्रिय पर्यटकों के लिए शांतिधाम बन सकता है।
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